Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ चामुण्डराय - भाव-कर्म क्या होता है ? आचार्य नेमिचन्द्र - कर्म के उदय में यह जीव मोह-राग-द्वेष रूप विकारी भावरूप होता है, उन्हें भाव-कर्म कहते हैं और उन मोहराग-द्वेष भावों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणा (कर्मरज) कर्मरूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बद्ध हो जाती है, उन्हें द्रव्यकर्म कहते (३) नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका ‘जीवतत्त्वप्रदीपिका'। (४) आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी की भाषाटीका 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका'। यह पाठ गोम्मटसार कर्मकाण्ड के आधार पर लिखा गया है। कर्म चामुण्डराय - महाराज ! यह आत्मा दुःखी क्यों है ? आत्मा का हित क्या है ? कृपा कर बताइये। आचार्य नेमिचन्द्र - आत्मा का हित निराकुल सुख है, वह आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त किया जा सकता है। पर यह जीव अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेषरूप विकारी भावों को करता है, अत: दुखी है। चामुण्डराय - हमने तो सुना था कि दुख का कारण कर्म है। आचार्य नेमिचन्द्र - नहीं भाई ! जब यह आत्मा अपने को भूलकर स्वयं मोह-राग-द्वेष भावरूप विकारी परिणमन करता है, तब कर्म का उदय उसमें निमित्त कहा जाता है। कर्म थोड़े ही जबरदस्ती आत्मा को विकार कराते हैं। चामुण्डराय - यह निमित्त क्या होता है ? आचार्य नेमिचन्द्र - जब पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमे ,तब कार्य की उत्पत्ति में अनकल होने का आरोप जिस पर आ सके उसे निमित्तकारण कहते हैं। अत: जब आत्मा स्वयं अपनी भूल से विकारादि रूप (दुःखादि रूप) परिणमे, तब उसमें कर्म को निमित्त कहा जाता है। चामुण्डराय - यह तो ठीक है कि यह आत्मा अपनी भूल से स्वयं दु:खी है, ज्ञानावरणादि कर्मों के कारण नहीं। पर वह भूल क्या है ? आचार्य नेमिचन्द्र - अपने को भूलकर पर में इष्ट और अनिष्ट कल्पना करके मोह-राग-द्वेषरूप भावकर्म (विभावभावरूप परिणमन) करना ही आत्मा की भूल है। चामुण्डराय - तो कर्मबंध के निमित्त, आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष भाव तो भावकर्म हैं और कार्माण वर्गणा का कर्मरूप परिणमित रजपिण्ड द्रव्य-कर्म ? ___ आचार्य नेमिचन्द्र - जो जीव के अनुजीवी गुणों को घात करने में निमित्त हों वे घाति कर्म हैं, और जो आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न हों उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं। चामुण्डराय - ज्ञान पर आवरण डालनेवाले कर्म को ज्ञानावरण और दर्शन पर आवरण डालनेवाले कर्म को दर्शनावरण कहते होंगे। आचार्य नेमिचन्द्र - सुनो ! जब आत्मा स्वयं अपने ज्ञान भाव का घात करता है अर्थात् ज्ञान-शक्ति को व्यक्त नहीं करता, तब आत्मा के ज्ञानगुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे ज्ञानावरण कहते हैं। और जब आत्मा स्वयं अपने दर्शन-गुण (भाव) का घात करता है, तब दर्शन गुण के घात में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे दर्शनावरण कहते हैं। ज्ञानावरणी पाँच प्रकार का और दर्शनावरणी नौ प्रकार का होता है। चामुण्डराय - और मोहनीय..........? आचार्य नेमिचन्द्र - जीव अपने स्वरूप को भूलकर अन्य को अपना माने या स्वरूपाचरण में असावधानी करे तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है - १. दर्शन मोहनीय २. चारित्र मोहनीय। मिथ्यात्व आदि तीन भेद दर्शन मोहनीय के हैं, २५ कषायें चारित्र मोहनीय के भेद हैं। १. ये नेमिचंद्राचार्य, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य से भिन्न हैं। (१८)Page Navigation
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