Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 7
________________ पाठ४ द्वेष और मोह से पाप का आस्रव और बंध होता है। शुभ और अशभ दोनों ही प्रकार का राग अर्थात् पुण्य और पाप दोनों ही छोड़ने योग्य हैं, क्योंकि वे आस्रव और बंधतत्त्व हैं। ___ पुण्य-पाप के विकारी भाव (आस्रव) को आत्मा के शुद्ध (वीतरागी) भावों से रोकना सो भाव-संवर है और तदनुसार नये कर्मों का स्वयं आना रुक जाना द्रव्य-संवर है। इसीप्रकार ज्ञानानन्द-स्वभावी आत्मा के लक्ष्य के बल से स्वरूप - स्थिरता की वृद्धि द्वारा आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्था का आंशिक नाश करना सो भाव-निर्जरा है और उसका निमित्त पाकर जड़ कर्म का अंशत: खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा है। प्रवचनकार - अशुद्ध दशा का सर्वथा सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भाव-मोक्ष है और निमित्त कारण द्रव्यकर्म का सर्वथा नाश (अभाव) होना सो द्रव्यमोक्ष है। उक्त सातों तत्त्वों को भलीभाँति जानकर एवं समस्त परतत्त्वों पर से दृष्टि हटाकर अपने आत्मतत्त्व पर दृष्टि ले जाना ही सच्चा सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय है। | षट् आवश्यक (मंदिरजी में शास्त्र-प्रवचन हो रहा है । पण्डितजी शास्त्र-प्रवचन कर रहे हैं और सब श्रोता रुचिपूर्वक श्रवण कर रहे हैं।) प्रवचनकार – संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं, और उन दुःखों से बचने के लिए उपाय भी करते हैं, पर उनसे बचने का सही उपाय नहीं जानते हैं, अत: दुःखी ही रहते हैं। एक श्रोता - तो फिर दुःख से बचने का सच्चा उपाय क्या है ? प्रवचनकार - आत्मा को समझकर उसमें लीन होना ही सच्चा उपाय है और यही निश्चय से आवश्यक कर्तव्य है। दूसरा श्रोता - आप तो साधुओं की बात करने लगे, हम सरीखे गृहस्थ सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए क्या करें? प्रवचनकार - दु:ख मेटने और सच्चा सुख प्राप्त करने का उपाय तो सबके लिए एक ही है। यह बात अलग है कि मुनिराज अपने उग्र पुरुषार्थ से आत्मा का सुख विशेष प्राप्त कर लेते हैं और गृहस्थ अपनी भूमिकानसार अंशत: सुख प्राप्त करता है। उक्त मार्ग में चलनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावक के आंशिक शुद्धिरूप निश्चय आवश्यक के साथ-साथ शुभ विकल्प भी आते हैं। उन्हें व्यवहार-आवश्यक कहते हैं। वे छह प्रकार के होते हैं - देवपूजा गुरूपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानञ्चेति गृहस्थाना, षट कर्माणि दिने दिने ।। १. देवपूजा २. गुरु की उपासना ३. स्वाध्याय ४. संयम ५. तप ६. दान । श्रोता - कृपया इन्हें संक्षेप में समझा दीजिए। प्रवचनकार - ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शद्धि निश्चय से भावदेवपूजा है और सच्चे देव का स्वरूप समझकर उनके गुणों का स्तवन ही व्यवहार से भाव-देवपूजा है। ज्ञानी श्रावक वीतरागता और सर्वज्ञता आदि गुणों का स्तवन करते हुए विधिपूर्वक अष्ट द्रव्य से पूजन करते हैं, उसे द्रव्यपूजा कहते हैं। प्रश्न १. तत्त्व किसे कहते हैं ? वे कितने प्रकार के हैं ? २. 'प्रयोजनभूत' शब्द का क्या आशय है ? ३. पुण्य और पाप का अन्तर्भाव किन तत्त्वों में होता है और कैसे ? स्पष्ट कीजिए। ४. हेय और उपादेय तत्त्वों को बताइये। ५. द्रव्य-संवर, भाव-निर्जरा, भाव-मोक्ष, द्रव्यास्रव तथा भावबंध को स्पष्ट कीजिए। ६. आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये। (१३)Page Navigation
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