Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ निर्जरा लोक वैरोग्योत्पत्तिकाल में बारह भावनाओं का चिंतवन करनेवाले ज्ञानी आत्मा इसप्रकार विचार करते हैं - अनित्य - द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो सर्व जगत् स्थिर है, पर पर्याय-दृष्टि से कोई भी स्थिर नहीं है, अत: पर्यायार्थिक नय को गौण करके द्रव्यदृष्टि से एक आत्मानुभूति ही करने योग्य कार्य है। अशरण - इस विश्व में दो ही शरण हैं। निश्चय से तो निज शुद्धात्मा ही शरण है और व्यवहार से पंचपरमेष्ठी। पर मोह के कारण यह जीव अन्य पदार्थों को शरण मानता जाता है, जिसे धारण करने से पापों का नाश होता है। संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड़ जाय / निज स्वरूप को पायकर,लोकशिखर जबथाय।। लोक स्वरूप विचारिकें, आतम रूप निहार / परमारथ व्यवहार गुणि, मिथ्याभाव निवारि / / बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहि / / दर्शज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि / दयाक्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि / / बोधिदुर्लभ धर्म ---- संसार - एकत्व अन्यत्व निश्चय से पर-पदार्थों के प्रति मोह-राग-द्वेष भाव ही संसार है। इसी कारण जीव चारों गतियों में दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है। निश्चय से तो आत्मा एक ज्ञानस्वभावी ही है। कर्म के निमित्त की अपेक्षा कथन करने से अनेक विकल्पमय भी उसे कहा है। इन विकल्पों के नाश से ही मुक्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में ही विकास कर रहा है, कोई किसी का कर्ता-हर्ता नहीं है। जब जीव ऐसा चिंतवन करता है तो फिर पर से ममत्व नहीं होता है। यह अपनी आत्मा तो निर्मल है, पर यह शरीर महान् अपवित्र है, अत: हे भव्य जीवो ! अपने स्वभाव को पहिचान कर इस अपावन देह से नेह छोड़ो। निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा केवल ज्ञानमय है। विभावभावरूप परिणाम तो आस्रवभाव हैं, जो कि नाश करने योग्य है। निश्चय से आत्मस्वरूप में लीन हो जाना ही संवर है। उसका कथन समिति, गुप्ति और संयम रूप से किया (29) निर्जरा- ज्ञानस्वभावी आत्मा ही संवर (धर्म) मय है। उसके आश्रय से ही पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश होता है और यह आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करता है। लोक - लोक (षट् द्रव्य) का स्वरूप विचार करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिए। निश्चय और व्यवहार को अच्छी तरह जानकर मिथ्यात्व भावों को दूर करना चाहिए। बोधिदुर्लभ - ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, अत: वह निश्चय से दुर्लभ नहीं है। संसार में आत्मज्ञान को दुर्लभ तो व्यवहारनय से कहा गया है। धर्म आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शनमय है। दया, क्षमादि आदि दशधर्म और रत्नत्रय सब इसमें ही गर्भित हो जाते हैं। अशुचि - आस्रव - संवर - प्रश्न 1. निम्नलिखित भावनाओं संबंधी छंद अर्थसहित लिखिये - अनित्य, एकत्व, संवर, बोधिदुर्लभ। 2. पण्डित जयचंदजी छाबड़ा के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये। (30)

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