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पाठ६
| रक्षाबंधन
चामुण्डराय - अब घातिया कर्मों में एक अन्तराय और रह गया?
आचार्य नेमिचन्द्र - जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के विघ्न में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। यह पाँच प्रकार का होता है।
चामुण्डराय - अब कृपया अघातिया कर्मों को भी......? आचार्य नेमिचन्द्र - हाँ ! हाँ !! सुनो! जब आत्मा स्वयं मोह भाव के द्वारा आकुलता करता है, तब अनुकूलता, प्रतिकूलतारूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय के भेद से दो प्रकार का होता है।
जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे, तब जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे आयु कर्म कहते हैं। यह भी नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है।
तथा जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे नाम कर्म कहते हैं। यह शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। वैसे इसकी प्रकृतियाँ ९३ हैं।
और जीव को उच्च या नीच आचरण करनेवाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। यह भी उच्चगोत्र और नीचगोत्र, इसप्रकार दो भेदवाला है।
चामुण्डराय - तो बस, कर्मों के आठ ही प्रकार हैं।
आचार्य नेमिचन्द्र - इन आठ भेदों में भी प्रभेद है, जिन्हें प्रकृतियाँ कहते हैं और वे १४८ होती हैं। और भी वे कई प्रकार के भेदों द्वारा इन्हें समझा जा सकता है, अभी इतना ही पर्याप्त है। यदि विस्तार से जानने की इच्छा हो तो गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए।
प्रश्न १. कर्म कितने प्रकार के होते हैं ? नाम सहित गिनाइये। २. द्रव्य कर्म और भाव कर्म में क्या अंतर है? ३. क्या कर्म आत्मा को जबर्दस्ती विकार कराते हैं ? ४. ज्ञानावरणी, मोहनीय एवं आयु कर्म की परिभाषाएँ लिखिए। ५. सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
अध्यापक - सर्व छात्रों को सूचित किया जाता है कि कल रक्षाबंधन महापर्व है। इस दिन अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ था। अत: यह दिन हमारी खुशी का दिन है। इसके उपलक्ष में कल शाला का अवकाश रहेगा।
छात्र - गुरुदेव ! अकंपनाचार्य कौन थे, उन पर कैसा उपसर्ग आया था, वह कैसे दूर हुआ ? कृपया संक्षेप में समझाइये।
अध्यापक - सुनो !
अकंपनाचार्य एक दिगम्बर संत थे, उनके साथ सात सौ मुनियों का संघ था और वे उसके आचार्य थे। एक बार वे संघ सहित विहार करते हए उज्जैन पहँचे। उस समय उज्जैनी के राजा श्रीवर्मा थे। उनके यहाँ चार मंत्री थे - जिनके नाम थे - बलि, नमुचि, बृहस्पति और प्रह्लाद ।
जब राजा ने मुनियों के आगमन का समाचार सुना तो वह सदलबल उनके दर्शनों को पहुँचा। चारों मंत्री भी साथ थे। सभी मुनिराज आत्मध्यान में मग्न थे। अतः प्रवचन-चर्चा का कोई प्रसंग न बना।
मंत्रिगण मुनियों के आस्थावान न थे, अत: उन्होंने राजा को भड़काना चाहा और कहा “मौनं मूर्खस्य भूषणम्” - मौन मूर्खता छिपाने का अच्छा उपाय है, यही सोचकर साधु लोग चुप रहे हैं।
श्रुतसागर मुनिराज आहार करके आ रहे थे। उन्हें देख एक मंत्री बोला - एक बैल (मूर्ख) वह आ रहा है और वे मंत्री मुनिराज से वादविवाद के लिए उलझ पड़े। फिर क्या था, मुनिराज ने अपनी प्रबल युक्तियों द्वारा शीघ्र ही उनका मद खंडित कर दिया।
राजा के सामने उन चारों का अभिमान चूर्ण हो गया। उस समय तो वे लोग चुपचाप चले गये पर रात्रि में चारों ने ही वहाँ आकर मुनिराज
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