Book Title: Vijaychandchariyam
Author(s): Chandrashi Mahattar, Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad
View full book text
________________
११६
9
एयं जो सुणइ नरो निच्चलचित्तो विसुद्धबुद्धीए । सो भवदुक्खविमुक्को पावइ मुक्खं सदा सुक्खं ॥ १४७॥ एयं मंगलनिलयं चरियं सिरिविजयचंदकेवलिणो । जा गयणे गहचक्कं ता मोहं हणउ भवियाणं ॥ १४८ ॥ सिरि निव्वुयवंसमहाधयस्स सिरिअभयदेवसूरिस्स । सीसेण तस्स रइयं चंदप्पहमहयरेणेयं ॥ १४९ ॥ रईयं वित्थररहियं चरिअं सिरिविजयचंदकेवलिणो । गाहाछंदनिबद्धं भवियाणं विबोहणा || १५० || देयावडवरनयरे रिसहनैरिंदस्स मंदिरे रइयं । नियवीरदेवसीसस्स साहुणो तस्स वयणेणं ॥ १५१ ॥ मुणिकमरुद्दंक (११२७) जुए काले सिरिविक्कमस्स वट्टंते । रईयं फुडक्खरत्थं चंदप्पहमहयरेणेयं ॥ १५२ ॥ जाव जसो ससिधवलो धवलइमहिमंडलं जिणिदाणं । ताव इमं जयउ जए चरियं सिरिविजयचंदस्स || १५३ || इति पूजाष्टके अवशिष्टकथा समाप्ता । सिरिविजयचंदकेवलीचरियं समत्तम् ॥
१. सुविसुहचित्तो । २. हियगुणठाण । ३. जिणंदस्स ।
जै० ध० प्र० स० वि० सं० १९६२ मु० प्र० मध्ये 'सिरिअमयदेव
सूरिस्स' इति पाठोऽस्ति तद्विषये प्राक्कथनमध्ये स्पष्टीकरणं कृतम् ॥
"
Jain Education International 2010_02
विजयचंदचरियं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218