Book Title: Updeshpad Part 01
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Lalan Niketan Madhada
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॥७॥
पुनरपि कीदृशामित्याह-रोक नक्तकणस्तहिपरीतश्चानोकः-लोकालोकयो. र्मूगांक श्व केवनासोकपूर्वकवचनचंतिकाप्राग्नारेण ययावस्थिततत्स्वरूपप्रकाशनात् तं खोकालोकमृगांकं, तथा पिञ्बंधने इतिवचनात्सितं चिरकालबद्धं कर्म ध्मातं निर्दग्धं शुकसध्यानानवाद्येन स निरुक्तासिकः-विधु गत्यामिति गतो निवृत्तिं-ख्यातो नुवनादृत्तुतनूतविजूतिनाजनतया-षिधू शास्त्रे मांगल्ये चेति वचनात्समस्तवस्तुस्तोमशास्ता विहितमंगनः-षिधु संराको राध साध संसिद्धावितिवचनात् साधितसकलप्रयोजनो वा सिद्धस्तं सिकं,-नक्तंच-मांतं सितं येन पुराणकर्म-यो वा गतोनिर्वृतिसौधमूर्ध्नि, ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्टितार्थोयः सोऽस्तु सिधः कृतमंगलो मे.
कळी ते केवा छे ते कहे छे :-लोक अने अलोकमां केवळ ज्ञान रुप अजवाका पूर्वक वचनरुप चंद्रिकाव तेनु खरेखरूं स्वरूप प्रकाशित करनार होवाथी चंद्रसमान,
तया " पिञ् बंधने" ए धातुपरयो सित एटले चिरकाळर्थी बांधेल कर्म ते ध्मात एटले शुकळध्यान रूप अग्नियी वाव्युं छे जेमणे ते निरुक्तथी सिद्ध कडेवाय छे अथवा “ पिधु गत्यां" ए धातुपरथी निवृत्तिने पामेला के जगत्ने आर्यकारक विजूतिना नाजन होवाय प्रख्यात रहेला ते सद्ध ने-अथवा " पिधू शास्त्र मांगध्येच" ए धातुपरथी सघली चीजोना शास्ता अने कृत मंगळ ते सिद्ध छे-अथवा " पिधु संराद्धौ-राधसाध संसिद्धौ" ए धातुपरथी सकळ प्रयोजन साधनार ते सिक जाणवा. कहे पण छे के :--
जेणे बांधेनां जूनां कर्म वाळ्यां छे, अथवा जे निवृतिरूप महेलना शिवरपर गया डे, अथवा जे ख्यात ने अनुशास्ता छे के कृतकृत्य छे ते सिक मने मंगलकारी थाो."
श्री उपदेशपद.

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