Book Title: Updeshpad Part 01
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Lalan Niketan Madhada
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॥११॥
पयई तणुकसाओ-दाणरओ सीलसंजमविहूणो ।मजिकमगुणेहि जुत्तो-मणुयाजं बंधए जीवो॥१॥अतिउर्वन्नमतीवदुरापं वदयमाणैरेव चोलकादिनिीतैनवसमुने अनेकपरजात्यंतरनीरत्नराकीणे मनपारे संसाराकूपारे, किमित्याह-सम्यक् स्वावस्थोचितानुष्टानारंजरूपसंगतनावयुक्तं यथा नवति एवं नियोक्तव्यं मनोवाकायसाम
•गोपनेन व्यापारणीयं कुशखैरज्ञानादिदोषकुशववंचनकक्षाकलापकक्षितैः मतिमद्निः पुंनिरित्यर्य:-सदापि वानयुक्त्वादिसर्वावस्थाव्याप्त्या सर्वकालमेव, धर्मे श्रुतचारित्रलक्षणे जिनप्रणीते, एतएव पश्यते बाब एव चरेद्धर्म---मनित्यं खशु जीवितं । फसानामिव पक्वानां-शश्वत् पतनतो नयं ॥ १॥
स्व नाव पातळा कषायवाळो शीळसंयमरहित बतां दानपरावण एम मध्यम गुणवान् जीव मनुष्य आयु बधे छे.
ते वक्ष्यमाण चोकादिक दृष्टांतायी अनेक जातिरुप नीरयी जरपूर लांचा संसार समुद्रमा अति वन ले माटे ते पामीने शें करखं ते कहे :-सम्यक् एटट्ने पोतानी अवस्याने उचित अनुष्ठान करवा रुप संग नावथी तेने क शळ एटने अज्ञानादि दोषने उतरवामां बरोवर कळावाज बुद्धिमान् जनोए हमेशां एट्ले बाळपण तथा जवानी वगेरे स. घठो अवस्या प्रोमां श्रुाचारित्र रूप जिनप्रणीत धर्ममा मन वचन कायनु सामर्थ्य लुपाच्या वगर वापरवं. जे माटे कडेवाय छे के
बाळ छतां पण धर्म करता रहेवं. केमके जीवित अनित्य छ, तेथी पाका फळोनी माफक हमेशां तेना परवानुं न्य रहे छ. १
श्रीनपदेशपद.
र

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