Book Title: Updeshpad Part 01
Author(s): Haribhadrasuri,
Publisher: Lalan Niketan Madhada
View full book text
________________
नावार्थश्च “एयंपुणएवंखा" इत्यादिना वक्ष्यते किमर्यमित्याह-मंदा जमा संशयविपर्ययानध्यवसायविनवोपेता तत्त्वप्रतीतिं प्रति मतिर्बुधिर्येषां ते तथा--तेषां विवोधनं संशयादिबोधदोषापोहेन परमार्थप्रकाशनं तदेवार्यः प्रयोजनं यत्र नणने तन्मंदमतिविबोधनार्थ-क्रियाविशेषणमेतत्. अथ पदेवपदेशपदेषु सर्वप्रधानमुपदेशपदं तदन्निधित्सुराह ;
सण माणुसत्तं--कहंचि अइलहं नवसमुद्दे । सम्मं निजियव्वं--कुशवेहि सयावि धम्ममि ॥३॥
लब्ध्वा समुपान्य मानुषत्वं मनुजन्नावलक्षणं कथंचित्केनापि प्रकारेण तनुकषायत्वादिनाध्यवसायविशेषणेत्यर्थः-यदवाचि.
नावार्थ, स्वरूप " एयं पुण एवं खलु" ए वगेरे गाथाओथी आगळ कहेवामां आवशे.
शामाटे कहीश ते कहेडे-तत्वनी प्रतीति प्रते मंद एटट्ने संशय विपर्यय, अने अनध्यवसायनी गमवमवाळी जम बुद्धि छे जेमनी तेवा मंदमतिओन विवोधन एटले. संशयादिक दोष टाळीने तेमने परमार्य जलाववो तेना अर्थे एटने प्रयोजने आ क्रिया विशेषण छे.
हवे ए उपदेशना पदोमा जे सौथी प्रधान उपदेशपद ने ते कहे जे.
आ जवसमुद्रमा अति उर्जन मनुष्यपणं कोइ पण रीते पामी करीने कुशळ पुरुषोए हमेशां धर्ममा उद्यम करवो. ३.
मानुषत्व एटले मनुजपणुं कोइ पण प्रकारे कर एटने के अल्पकषाय वगेरे अध्यवसाय विशेष करीने बहीने एटले पामोने-जे माटे कहे छे के :
श्री उपदेशपद..

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 420