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बार माता-पिता की आज्ञा लेकर दोनों दक्षिण मथुरा व्यापार करने गये । वहाँ उन्हें जयसिंह नामक व्यापारी से मित्रता हो गयी जिसकी अर्णिका नामक एक बहन थी । एक दिन दोनों जयसिंह के यहां भोज पर आये । अर्णिका का लावण्य देखकर देवदत्त उस पर मोहित हो गया । जयसिंह ने दोनों की शादी इस शर्त पर कर दी कि शादी के बाद देवदत्त उसी के घर रहेगा । बहुत समय बाद अर्णिका गर्भवती हुई । देवदत्त अपने पिता का पत्र पाकर जाने को सोचने लगा । अर्णिका भी रहस्य जानकर सासससुर के पास जाने के लिए तैयार हो गयी । जाते समय रास्ते में ही अर्णिका ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अर्णिकापुत्र रखा गया । घर आकर देवदत्त ने बालक को अपने माता-पिता की गोद में रखा । बड़ा होकर अर्णिकापुत्र चारित्र ग्रहण किया और अनेक जीवों को प्रतिबोध देकर मोक्ष प्राप्त किया २२ । ५५. श्रीमरुदेवी माता की कथा
जब प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव ने मुनिदीक्षा स्वीकार कर ली तब भरत राज्य का अधिकारी बना । ऋषभदेव की माता मरुदेवी भरत को हमेशा सारसंभाल करने के लिए कोशती रहती थी । वह पुत्र ऋषभ के बिना दु:खी रहा करती थी । एक दिन ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इसकी खबर पाकर भरत राजा माता मरुदेवी को साथ लेकर समवसरण के निकट पहुँचे । माता मरुदेवी को पुत्र की उपलब्धि देखकर हर्षाश्रु उमड़ आये । मोह के कारण अपने आपको धिक्कारती हुई तथा अनित्य भावना का चिन्तन करती हुई वह केवलज्ञान को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हुई।२३ । देवों ने उसके शरीर को क्षीर सागर में बहा दिया । ५६. सुकुमालिका दृष्टान्त
वसन्तपुर नगर में राजा सिंहसेन और रानी सिंहला के दो वीरवान पुत्र ससक और भसक तथा रूपवती पुत्री सुकुमालिका थी । किसी समय ससक और भसक दीक्षा ग्रहण कर लिए । वे विहार करते-करते अपनी बहन को भी प्रतिबोध देकर दीक्षा ग्रहण करा दिये । सुकुमालिका की सुन्दरता के कारण कामुक पुरुष हमेशा उपाश्रय पर आकर जमे रहते थे । गुरुजी ने उसकी रक्षा के लिए उसके मुनिभ्राताद्वय को लगा दिया२४ । एक दिन उन दोनों की कामुकों के साथ लड़ाई हुई । यह देखकर सुकुमालिका अपने सौन्दर्य को धिक्कारती हुई उसे नष्ट करने के लिए अनशन पर बैठ गयी । अनशन के कारण एक दिन वह मूर्छित हो गयी । उसके भाइयों ने उसे मृत
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