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अपने हाथों में लेकर समझाया कि निकाचित कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं । एक दिन नन्दीषेण पारणे के लिए एक वेश्या के यहाँ पहुँचे और धर्मलाभ का उच्चारण किया । वेश्या के अर्थलाभ कहने पर मुनि ने अपने तप: तेज से सोने की वर्षा करा दी । वेश्या ने उन्हें अपने कामपाश में बाँध लिया । परन्तु मुनि वेश्या के सुखोपभोग करते हुए भी रोज १० व्यक्तिओं को प्रतिबोध देते थे । यह उनका संकल्प था । इस प्रकार १२ वर्ष बीत गये । एक दिन ९ व्यक्तियों को ही प्रतिबेध दे पाये । बहुत कोशिश किये, उधर वेश्या खाने को बुला रही थी लेकिन वे आ नहीं रहे थे । भी उसने कहा दसवाँ आपको ही प्रतिबोधित समझ लीजिए । इस पर वे पुन: मुनिवेश धारण करके चल दिए । वेश्या के बहुत कहने पर भी नहीं रुके और पुन: मुनिदीक्षा ग्रहण कर चारित्राराधन करने लगे । मरकर देवलोक पहुँचे ।
६१. कुण्डरीक और पुण्डरीक की कथा
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जम्बूद्वीप के पुण्डकरिणी महानगरी में महापद्म राजा और पद्मावती रानी के पुण्डरीक और कुण्डरीक दो पुत्र हुए । एक बार महापद्म राजा पुण्डरीक को राजा तथा कुण्डरीक को युवराज पद देकर स्वयं दीक्षा ले लिए और चारित्राराधन करके केवली हुए और मोक्ष को प्राप्त हुए । कुछ समय बाद दोनों को किसी स्थविर मुनि से धर्मोपदेश सुनकर विरक्ति हो गयी । लेकिन कुण्डरीक पुण्डरीक को राज्य भार सौंपकर दीक्षा ले लिया । उग्र विहार करने से उसके शरीर में महारोग पैदा हुआ । एक बार वह पुण्डकरिणी नगरी में आया । उसके भाई ने उसकी चिकित्सा करायी । स्वादिष्ट भोजन करने से वह विहार करने नहीं जाना चाहता था फिर भी गया । लेकिन रहरह कर विषयभोग की अभिलाषा उसे सताती रहती थी । आखिर एक दिन उसने गुरुजी से पूछे बिना ही पुण्डकरिणी नगरी वापस आया और अशोकवृक्ष में नीचे चिंतातुर होकर बैठ गया । धायमाता से उसका आया जानकर पुण्डरीक उसके पास आया और उसकी अभिलाषा से अवगत होकर कुटुम्बियों से विचार-विमर्श करके उसे राजगद्दी पर बैठा दिया । पाचन शक्ति की क्षीणता के कारण गरिष्ठ भोजन से उसके शरीर में वेदना होने लगी । घृणा के कारण कोई भी उसकी सेवा नहीं करता था । इस पर वह उनसे बदला लेने की सोचता था जिससे मरकर वह सातवीं नरक का अधिकारी बना१९९ । उधर पुण्डरीक मुनि दीक्षा अंगीकार कर भोजन लिए बिना ही मुनियों के दर्शन वन्दनार्थ कृतसंकल्प होकर चल दिया । अनेक वेदनाओं को सहते
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