Book Title: Updesh Prasad
Author(s): Vijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
Publisher: Vijaynitisuri Jain Library

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Page 3
________________ wwwwwwwwwwwwww w wwwww wwwm शार्दूलविक्रीड़ित भो भव्या भववारिधौ निरवधौन क्रोधवत् संभ्रमात् । भ्राम्यन्तः कथमप्यवाप्य सुकृतात्मानुष्यजन्माद्भूतं । तत्साफल्यकृते विधत्त विनयेनाराधनं साधनं । श्रीसिद्धं परमेष्ठिनामतितरां शर्मद्रुमांभोधरम् ॥ - हे भव्य जीवों ! इस अपार भवसमुद्र में जल जन्तु सदृश संभ्रम से भटकते हुए किसी पुण्योदय से मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर उसे सफलीभूत बनाने को सुखरूप वृक्ष के लिये मेघ सदृश पंचपरमेष्ठि का शीघ्रतया विनय. पूर्वक आराधन करो! . -उपदेशप्रासाद-व्याख्यान १२

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