Book Title: Updesh Chintamani Satik Part 04 Author(s): Jayshekharsuri Publisher: Shravak Hiralal Hansraj View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उप चिं- || सरागो जोक्ता नृत्यति दर्षप्रकर्षजागू जवति, तदेव जक्तं पानकं वा परिणामे मलमूत्रनिमि ताभा. ४ तमिति बुद्ध्या चिंत्यमानं कस्य मुमुक्षोर्वैराग्यं न जनयति ? अपि तु जनयत्येव तदेवमेकस्य जक्तस्य पानकस्य वा सरसतया मलमूत्रादिनिमित्ततया च विचार्यमाणस्य यथा रागवैराग्यहेतुता दर्शिता तथा सर्वेष्वपि वस्तुषु जावनीया. एतदेवाद ८६१ ॥ मूलम् ॥ - जे अलंकारेणं । कालं कि होइ रमणीमण हो । सोवि परमत्थनासत्तिकस्स न जणेइ वेरग्गं ॥ ७ ॥ पासंतो फासंतो । जं रमणिं मन्नए महासुक्खं ॥ सावि कूमी कूमाणं-ति कस्स न जणेइ वेरग्गं ॥ ८ ॥ दव्वस्स जस्स कज्जे । नियए पाणे गणेश ति रूवे ॥ सोवि खण दिठ्ठनट्टो-त्ति कस्स न जणेइ वेरग्गं ॥ ९ ॥ जं पालियरत सिरिं । मन्नअमरेसर व पाणं ॥ स नरयगइनिमित्तं-ति कस्स न जणे वेरग्गं ॥ १० ॥ व्याख्याचतस्रोऽपि गतार्थाः. ॥ मूलम् ॥ एवं सव्वे जावें । जावेमाणे विरतिहे७हिं ॥ को नायरिज्ज कुसलो । परिबामे सुंदरं चरणं ॥ ११ ॥ व्याख्या - एवमुक्तया दिशा सर्वानुक्तव्यतिरिक्तानपि नावान् परि For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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