Book Title: Updesh Chintamani Satik Part 04
Author(s): Jayshekharsuri
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उप चि || ह्यस्माकं स्वजनस्नेहश्चारित्रप्रतिबंधकः, किंत्वयमाहतो गृहव्यापारजारः कथमर्धपथे मुच्यत दाभा. ४) इति तंप्रत्याह
॥ मूलम् ॥ - हुंति हु एकघरस्सवि । वावरलवेण वावमा केवि ॥ तं न वहिउँ न मुलुं । सित्थंव पिपीलिया सत्ता ॥ १० ॥ व्याख्या - केऽप्यैदंयुगीना वराका एकस्यापि गृहस्य व्यापालवेन व्याप्ता व्यग्रा जवंति, ते च तं व्यापारसवं न वोढुं शक्ताः, कुटुंबस्येष्ठावधिदानाकमत्वात् न च मोक्तुमपि शक्ताः प्रतिबंध बहुलत्वात् यथा पिपीलिकाः सिक्यं नक्तलवं प्राप्य जारवत्वान्न तद्वोढुं लौल्यान्न तन्मोक्तुं शक्नुवंतीति तर्हि पूर्व जीवाः कीदृशा सन्नित्याह
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॥ मूलम् ॥ अवरे वरवसदा इव । पढमं धरिडं समग्गधरणिधुरं ॥ पचा खषेण चइऊ । गहिदिकं गया मुकं ॥ १० ॥ व्याख्या - सुगमा, नवरमपरे श्री भरत सगरादयः. उक्तं वैराग्यं चरणप्रतिप्रत्तिश्चेति द्वारद्वयं अथ ज्ञानद्वारं विवरिषुराह
॥ मूलम् || मोहखत्र समेणं । चरणे पत्ते समुद्र मसु नाणे ॥ जं अंकुसंग उप्पह-गयस्त
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