Book Title: Tulsi Prajna 1995 01
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ अनुयोगद्वार में (सू० ६०५) में तीन प्रकार की वक्तव्यता बतलाई गई है-(१) . स्वसमय वक्तव्यता-जैन दृष्टिकोण का प्रतिपादन । (२) परसमयवक्तव्यता--जनेतर दष्टिकोण का प्रतिपादन । (३) स्वसमय-परसमयवक्तव्यता- जैन और जैनेतर दोनों दृष्टिकोणों का एक साथ प्रतिपादन । नंदी सूत्रगत स्थानांग के विवरण भी में बतलाया गया है" -- स्थानांग में स्वसमय की स्थापना, परसमय की स्थापना और स्वसमयपरसमय की स्थापना की जाती है । इसके आधार पर जाना जा सकता है कि स्थानांग में तीनों प्रकार की वक्तव्यताएं हैं । संख्या के अनुपात से एक द्रव्य के अनेक विकल्प करना-इस आगम की रचना का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है । उदाहरणतः प्रत्येक शरीर की दृष्टि से जीव एक है।" संसारी और मुक्त -इस अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं।" उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इस त्रिपदी से युक्त जीव त्रिगुणात्मक है । गति चतुष्टय में संचरणशील होने से चार प्रकार का । इसी प्रकार क्रमशः पांच, छह यावत् दस विकल्पों वाला जीव बताया है। संख्या के आधार पर ही इसमें विषय संकलित है, इस दृष्टि से भी यह आगम विषय ज्ञान के अनगिनत पहलुओं का स्पर्श करता है। संदर्भ :१. नंदी सूत्र, सू० ८२ : ठाणेणं एगाइयाए एगुत्तरियाए उड्ढीए दसट्ठाणगविवड्ढियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जति । २. कसायपाहुड, भाग-१, पृ० १२३ : ठाणं नाम जीवपुद्गलादीणामेगादि एगुत्तर कमेण ठाणाणि वण्णेदि। ३. नंदी सूत्र चूणि पृ० ६४ : 'ठाविज्जति' त्ति स्वरूपतः स्थाप्यते प्रज्ञाप्यन्त ___ इत्यर्थः। ४. नंदी सू० हरिभद्रीयावृत्ति पृ० ७२ : तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम् स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते, व्यवस्थित स्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम् । ५. कसायपाहुड, भाग १, पृ० ११३।६४,६५ : एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ । चतुसंकमणाजुत्तो पंचग्गुणप्पहाणो य छक्कायक्कमणजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्ठाणिओ भणिओ। ६. ववहारसुत्तं, सूत्र १ , पृ० १७५, मुनि कन्हैयालाल कमल । ७. ठाणं-समवाओऽवि य अंगे ते अट्ठवासस्स अन्यथा दानेऽस्या ज्ञानभंगादयो दोषाः स्थानांग टीका। ८. ठाण समवायधरे कप्पइ आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए व्यवहार सूत्र, उ० ३, सूत्र ६८ ९. समवायांग सूत्र १३८, पृ० १२३, मुनि कन्हैयालाल । खड २०, अंक ४ २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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