Book Title: Tristutik Mat Mimansa
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Lakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara

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Page 13
________________ त्रिस्तुतिक मत-मीमांसा । तीर्थवि०- (कुछ ठहर के ) नहीं, ऐसा नहीं करना चाहिये, हम और तुम कौनसे जुदे हैं, राजेन्द्रमरिजी के शिष्य कीर्तिचन्द्रजी, और उन के पशिष्य तुम, अगर सोचा जाय तो हम तुम सब एक ही हैं। यदि यह कथन हृदय का होता तो इस तकरार का वक्त ही नहीं आता। इतनी बातचीत होने के बाद मैं अपने स्थान पर आया । बाद इस के धनविजयजी के भक्त 'लल्ल वल्यम' अहमदाबाद वाले और श्रावक वजींगजी वाघरावाले ने हमारे पास आकर बहुत कहा कि अब आप जाने दीजिये, क्यों कि इस में कुछ भी सार नहीं है, आप उन की बुरियां लिखेंगे, और वे आप की, इस का नतीजा अच्छा नहीं आवेगा। मैने कहा-तुम मुझी को कहते हो या उन को भी ? । वजींगजी बोले-उन को क्या कहना है ? अगर आप अब कुछ भी न छपावेंगे तो झगडा मिट ही गया ! । मैने कहा-अच्छा, तुम उन से यह लिखा दोकि “ समुचित उत्तर दानपत्र में जो झूठे आक्षेप तुम्हारे ऊपर किये हैं वे गलत हैं, "-फिर मैं नहीं छपाऊंगा। वजींगजी बोले-यह तो कैसे हो सके, क्यों कि ऐसा तो वे कभी नहीं लिखेंगे। ___मैने कहा-अगर वे न लिखें तो हम को क्या गरज है जो उचित बात को छोड के सत्य का गला घोंटें ।। पाठकमहोदय देखी इन की कारवाई ? ये तो गिरकर के भी अपनी टंगडी तो उंची ही रखना चाहते हैं और दूसरों को कहते हैं कि 'झगडा मत करो!' क्या इस से आप यह कह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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