Book Title: Trishashtishalakapurushcharitammahakavyam Parva 8 9 Author(s): Hemchandracharya, Ramnikvijay Gani Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 7
________________ (६) सम्पादकीय 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' ए श्रीहेमचन्द्राचार्य, एक उत्तम कक्षानुं महाकाव्य छे, जे लगभग छत्रीश हजार श्लोकोमां पथरायेलुं छे. आ महाकाव्यनुं अध्ययन सैकाओथी जैन संघमां अविरतपणे चाली रह्यं छे. आजे पण साधु-साध्वीसमुदायमां तेनुं पठन-पाठन चालु ज छे. आ महाकाव्यनी अनेक आवृत्तिओ प्रगट थई चुकी छे, एटलुं ज नहि, पण तेना गुजराती, हिन्दी तेमज अंग्रेजी अनुवादो पण थया छे अने छपाया छे. आम छतां, आ महाकाव्यनी समीक्षित अने संशोधित वाचना अद्यावधि छपाई नथी. आ दिशामां सौथी प्रथम काम स्व. मुनि श्रीचरणविजयजीए आदरेखें, अने आ महाकाव्यना प्रथम पर्वनी शुद्ध वाचना तैयार करेली. ते पछी द्वितीय-तृतीयचतुर्थ एम त्रण पर्वोनी वाचना स्व. आगमप्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजीए तैयार करी हती. ___ आ पछीनां पर्वोनी वाचना तैयार करवायूँ कार्य स्व. पंन्यास श्रीरमणीकविजयजी गणिए करेलुं, जे अद्यावधि अप्रकाशित हतुं. आ अप्रकाशित फाइलो प्रत्ये माझं ध्यान जतां मने थयुं के आ कार्य करवू जोईए. तरत ज ते कार्य हाथ पर लीधुं. अवलोकन करतां लाग्युं के पं. श्रीरमणीकविजयजीए जे हस्तप्रतिओना आधारे वाचना तैयार करी छे, ते उपरांत पण केटलीक महत्त्वपूर्ण प्रतिओ छे, जेनो उपयोग थाय तो वाचना वधारे समीक्षित थई शके. एटले ए रीते में प्रयत्न आरंभ्यो, जेनुं परिणाम प्रस्तुत पुस्तक छे. प्रस्तुत पुस्तकमां आठमुं अने नवमुं- एम बे पर्वोनो समावेश थयो छे. आ पैकी आठमा पर्वनी सरस प्रतिलिपि स्व. पं. श्रीरमणीकविजयजी महाराजे स्वहस्ते तैयार करी हती, तेनो उपयोग करेल छे. तेमणे ते प्रतिलिपिमां आपेली वाचनाना पाठान्तरो नोंधेला तेमज केटलांक टिप्पणो पण करेलां. तेमणे निम्ननिर्दिष्ट संज्ञावाळी प्रतिओनो उपयोग को जणाय छ : ला. १,२, ला; की०, छा०, पा०, सं०, ता०, पु०, आ० ॥ प्रतिओ के ते ते संज्ञाओ, विवरण आ प्रमाणे मळ्युं छे :ला० १ : ला. द. विद्यामन्दिर शास्त्रसंग्रहसत्क कागद प्रति, ले. सं. १५२७, शुद्धप्राय प्रति. ला०२ : ला. द. विद्यामन्दिर शास्त्रसंग्रहसत्क कागदप्रति, अनुमान सं. १७ मो सैको, मध्यम. ला० : ला. द. विद्यामन्दिर पुण्यविजयजीसंग्रहगत कागद प्रति, सं. १५०२, शुद्धप्राय. की० : ला.द.वि.कीर्तिमुनिसंग्रहगत प्रति, अनु. सं. १६ मो सैको, शुद्धप्राय. छा० : छाणी, प्र० कान्तिविजयजी शा.सं. गत प्रति, अनु० १७ मो सैको, शुद्धप्राय. पा० : पाटण, हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिरगत संघभण्डार सत्क प्रति, अनु० १७ मो सैको, मध्यम. सं० : पाटण, संघभण्डारसत्क ताडपत्र प्रति, अनु० १५ मो सैको, शुद्धप्राय. ता० : पाटण, संघभण्डारसत्क ताडपत्र प्रति, शुद्धप्राय. पु० ला. द. वि. पुण्यविजयजीसंग्रहगत प्रति, अनु. १६ मो सैको, शुद्धप्राय. आ० : ला. द. वि. पुण्यविजयजीसंग्रहगत प्रति, सं. १८४४, अशुद्ध. में आ प्रतिलिपिना पुनः सम्पादनमा निम्नांकित ४ प्रतिओनो उपयोग कर्यो छे : खं. १, २ (खंभात ताडपत्र भण्डार), ला० (ला. द. विद्यामन्दिरनी कोई प्रतिनी प्रतिकृति), सू. (आ. श्रीविजयसूर्योदयसूरि-संग्रह, गोधरानी प्रति). क्यारेक रमणीकविजयजी-स्वीकृत पाठनो त्याग करवान बन्यु, त्यां तेमना द्वारा स्वीकृत पाठनो निर्देश 'र.संपा.' अथवा 'र. स्वीपा.' एवी रीते टिप्पणीमां करेल छे. उपरांत, मुद्रित प्रतिना पण महत्त्वनां पाठान्तरो टिप्पणोमां 'मु०' एवा निर्देश साथे लीधां छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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