Book Title: Tirthankar 1975 06 07 Author(s): Nemichand Jain Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore View full book textPage 2
________________ श्री मानतुंगाचार्य विरचितं भक्तामर' नामधेयमादिनाथ स्तोत्रम् अनुवाद : उपाध्याय विद्यानन्द मनि कि शरीष दागिनाह्नि विवम्वना वा, युप्मन्मुखेन्दुदलित' तमाम नाथ । निष्पन्न गालिवनगालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरैजल भाग्नम्रः ।। हे नाथ, जब तुम्हारा मुखचन्द्र अन्धकार को अस्तित्वशेष कर चुका हो तब क्या सरोकार है मुझे सूरज से, चन्दा से; उनसे होनेवाले दिन से, रात से। जब धान के खेत सहज ही पक चुके हों तब कादम्बिनी (सजल मेघमाला, जल के भार से विनम्र बादल) व्यर्थ है। जानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नवं तथा हरिहगदिषु नायकेषु । नेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्व, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ।। जिस सहज-सम्यक् ज्ञान से तुम अभिमण्डित हो, उस आभा का सौवाँ भाग अन्य देवताओं को उपलब्ध नहीं है; जो नैसर्गिक प्रभा रत्न-मणियों में होती है, वह शोभा-सुषमा सूर्यरश्मियों से ज्योतिर्मान काँच के टुकड़े में कैसे सम्भव है ? (अन्ततः स्वभाव स्वभाव है, विभाव विभाव; उधार मिली रोशनी और मौलिक ज्योति के भेद को कौन मिटा सकता है ? ) मन्ये वरं हरिहगदय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । कि वीक्षितेन भवता भूवि येन नान्यः, कश्चिन्मनोहति नाथ भवान्तरेऽपि ।। राग में फंसे देवताओं को मान मैंने अपना विशेष हित समझा, फिर स्वयं में होकर, हे प्रभो, आपकी ओर देख हृदय सन्तुष्ट हुआ; जब तुम्हें ही देख लिया है तो फिर ऐसा क्या शेष रह गया है; हे समदर्शी, जिससे मन तृप्त हो; फिर तो सर्वत्र तुम ही तुम हो, जन्मान्तरों तक अन्यों को देखने के लिए हृदय के उत्कण्ठित होने का कोई प्रश्न ही नहीं है ? श्री ऋषभदेव दिगम्बर जैन मन्दिर, अतिशय क्षेत्र श्रीनगर (पौढ़ी गढ़वाल) हिमालय, उ. प्र. द्वारा प्रचारित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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