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वाले पापकर्म रुकेंगे। इस व्रत में केवल द्रव्य की ही मर्यादा नहीं होती, चलअचल सभी प्रकार की सम्पत्ति का आवश्यक्तानुसार परिमाण करना पड़ता है। हमारे सामने आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों का आदर्श विद्यमान है जिन्होंने इन व्रतों को ग्रहण कर शांति की स्थापना की । इस परिग्रहपरिमाण की पुष्टि के लिए ही छटी, सातवां और आठवां व्रत हैं। अर्थात् गृहस्थ यह प्रतिज्ञा करे कि मुझे प्रत्येक दिशा अमुक से अधिक सीमा में व्यापर के लिए नहीं जाना है । इससे विषम भोगों की, वैलासिक जीवन की, प्रतिस्पर्द्धा की लालसा न बदेगी। प्रतिदिन मनुष्य के उपयोग में आनेवाली प्रत्येक वस्तु की भी गृहस्थ मर्यादा करे। एसे पदार्थ दो प्रकार के होते हैं -
में
JOth anniversary pradikshindia mahotsave
(१) भोग्य जो वस्तु एक बार उपयोग में आने के बाद दूसरी बार न भोगी जाय जैसे अन्न, जल, विलेपन आदि ।
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यह भावना उदित करने में न तो हिंसक मार्क्सवाद ही सहायक हो सकता है और न कोरा आदर्शवाद । अगर इस प्रकार का वातावरण कोई बना सकता है तो वह महावीर का अपिरग्रहवाद जिसका प्रत्यक्ष
(२) उपभोग्य जो वस्तु एक से अधिक बार उपयोग में आती हो एवं व्यावहारिक रूप श्रमण संघ के जीते जागते त्यागमूर्ति, वीतरागी
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जैसे - मकान, कपड़ा, गहना आदि ।
तथा क्रियाशील सेवाभावी तपस्वियों में देखा जा सकता है। इस अस्तेय एवं अपरिग्रह के द्वारा जो शांति स्थापित होगी वह तलवार के बल पर स्थापित होने वाली न तो अकबर महान् की शांति होगी, न विश्वविजयी सिकन्दर जैसी लेकिन वह शांति तो ऐसी शांति होगी जिसके लिए "दिनकर" लिखते हैं
इन सारी चीजो की प्रातः उठकर गृहस्थ मर्यादा करे कि अमुक वस्तु मुझे दिन में कितनी बार और कितने परिमाण में काम में लानी है । अन्तिम चार व्रतों का विधान भी आध्यात्मिक बल उत्पन्न करने एवं अपरग्रहवृत्ति बढ़ाने के निमित्त है। बहु आरंभी एवं परिग्रही नरक का भागीदार होता है जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा है “बहारंभ परिग्रहत्वं नारकस्यायुषः” अतः हमें परिग्रह का त्याग कर अपरिग्रह की ओर झुकना चाहिये क्योंकि “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य" यह मनुष्य आयु प्रदान करता है ।
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आज दुनिया दो शक्तियों (Power-blocks) में बंटी हुई है।
(१) पूंजीवादी दल जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा है। (२) साम्यवादी दल जिसका नेतृत्व रूस कर रहा है।
दोनों अपने अपने स्वार्थ के लिये लड़ रहे हैं और विश्व के तमाम राष्ट्रों को युद्धानि में घसीटने का प्रयत्न कर रहे हैं। अगर एक सच्चे परिग्रहगृहस्थ की तरह ये राष्ट्र भी भगवान् महावीर के सिद्धान्तों परिमाणव्रत को ग्रहण कर आवश्यकता से अधिक संगृहीत वस्तु का दान उन राष्ट्रों को कर दें जिनको इनकी जरूरत हो तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि विश्व में शांति स्थापित हो जायगी। पिछले दो महायुद्ध हुए जिनका मूल कारण भी यही परिग्रहवृत्ति थी । महावीर का देश भारत आज नये स्वर में उसी सिद्धान्त का प्रचार सर्वोदय, पंचशील, शांतिमय सहअस्तित्व (Peaceful co-existence) के रूप में कर रहा है। अगर प्रत्येक राष्ट्र छटे व्रत के अनुसार प्रत्येक दिशा में अपनी अपनी मर्यादानुसार भूमि का परिमाण करले तो यह युद्धलिप्सा मिट जाय, यह एटमबाजी समाप्त हो जाय, ये प्रलय के बादल प्रणय की बूँदों में बदल जायें। गांधीजी के सुशिष्य विनोबाजी इसी भावना से
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प्रेरित होकर भूदान आन्दोलन कर रहे है जिसके अन्तर्गत सम्पत्तिदान, बुद्धिदान, कूपदान, साधनदान और श्रमदान का सूत्र पाल कर अपरिग्रह की भावना का विकास कर रहे हैं और उन्हें काफी सफलता मिली है तथा मिलती जा रही है। प्रगतिशीलक कवि "दिनकर" ने "कुरुक्षेत्र" में लिखा है
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" शांति नहीं तब तक जब तक, सुख भाग न नर का सम हो । नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो ।”
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"ऐसी शांति राज्य करती है, तन पर नहीं हृदय पर नर के ऊंचे विश्वासों पर, श्रद्धा भक्ति प्रणय पर ।। "
अंग्रेजी में एक लेखक ने लिखा है कि “The less I have the more I am” अर्थात् हमारे पास जितना कम परिग्रह होगा, उतने ही हम महान् होंगे सचमुच धनदौलत के पाने से, दीनदुःखी को लूटने से कोई महान् नहीं बनता । महान् बनता है त्याग से, अपरिग्रह और अस्तेय से । अगर हम सोने को भी छिपा छिपा कर, ममत्व भाव रखकर, धरती में गाड़ रखेंगे तो वह मिट्टी बन जायगा। तालाब के पानी की तरह हम अगर धनतादौलत को इकठ्ठी कर उसका यथोचित उपयोग न करेंगे तो वह सड़ जायगी। शेक्सपियर ने इसी बात को फूल के रूपक में कितना अच्छा कहा है ।
"Sweetest things turn sourest by their deeds, Lilies that faster smell far worse than weeds."
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अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम “Eat, drink and be merry” जैसे चार्वाक - सिद्धान्त को छोड़कर “ Live and let live” को आचरण में लाकर अपरिग्रहवाद का सम्बल लेकर विश्वमार्ग के पथिक बनें, फिर सचमुच शांति हमारे पैर चूमेगी ।
आचार्य विजयवल्लभसूरी स्मारक ग्रंथसे साभार
Discussion is an exchange of knowledge; argument an exchange of ignorance.
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