Book Title: The Jain 1998 07
Author(s): Amrit Godhia, Pradip Mehta, Pravin Mehta
Publisher: UK Jain Samaj Europe

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Page 182
________________ 10th amiversary pratishtha mahotsava है। इसी विषमता का चित्रण प्रगतिशील कवि श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' है तो वह भिखारी उस पूंजीपति से ज्यादा परिग्रही है जिसके पास की इन पंक्तियों में देखिये - करोड़ो की दौलत है पर उसे वह अपनी नहीं समझता और जो "श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं। मूर्छाभाव से मुक्त है। अपरिग्रही भावना के विकसित होने पर ही मां की हड्डी से चिपक ठिठुर - जाड़ो की रात बिताते हैं। धनपति का क्रूर हृदय भी करूणा से पिघल जाता है । दान और दया यवती की लज्जा वसन बेच जब ब्याज चकाये जाते हैं। की वाहिनी कल कल करती हई बह उठती है. जिसके प्रेम और मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं।" अभेदमूलक व्यवहार भरे नीर में अवगाहन कर लड़खड़ाती मानवता एक ओर ऐसा वर्ग है जो पेट और पीठ एक किये दाने दाने के लिए निर्मल एवं निडर हो शांति का सांस लेने लगती है। तरसता है तो दूसरी ओर चांदी की चटनी से वेष्टित ऐसे पकवान हैं भगवान् महावीर ने गृहस्थों के बारह व्रत बतलाये हैं। उनपर अगर जिन्हें खाकर लोग बीमार हो जाते हैं। एक ओर रहने के लिए - सर्दी, सूक्ष्मदृष्टि से विचार किया जाय तो स्पष्ट है कि उसके मूल में अधिकतम गर्मी, पावस से अपनी रक्षा करने के लिए, टूटा छप्पर तक नसीब नहीं आर्थिक समता स्थापित करने की भावना निहित है, गृहस्थी को तो दूसरी ओर वे बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं जिनमें भूत बोला करते हैं। मर्यादित और नियमित बनाने की ध्येय है। मर्यादित जीवन में कभी इसी भेद-भाव को मिटाने के लिए नवीन नवीन विचारों को लेकर अतिरेक और अतिक्रमण के अभाव में न खुद में अशांति होती है ओर विचारकों ने नये नये वादों की सृष्टि की है। लेकिन जितने भी वाद न दूसरों को अशान्त करने की भावना प्रबल हो सकती है। वर्तमान में प्रचलित हैं सभी अधूरे हैं। किसी में रक्तपात है तो किसी में बारह व्रत स्वार्थ भाव । किसी में अव्यवहारिकता है तो किसी में कोरा खयालीपलाव। लेकिन एक ऐसा साधन और हल (वाट जिम को (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व क्रांतदर्शी भगवान् महावीर ने (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत मनोमन्थन कर अतीन्द्रिय ज्ञान द्वारा प्रतिपादित किया था। वह है “सव्वे स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत स्थूल अब्रह्मचर्य विरमण व्रत जीवावि इच्छन्ति जीविउं न मरिजउं” सभी जीव जीना जाहते हैं, स्थूल परिग्रह विरमण व्रत मरना कोई नहीं चाहता। सभी सुख जाहते हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। दिग्व्रत इस पावन एवं पुनीत भावना का जन्म और विकास अगर मानव हृदय देश व्रत में हो सकता है तो वह भगवान् महावीर के अनोखे एवं व्यावहारिक अपरिग्रह वाद के सिद्धान्त के बल पर । (९) सामायिक व्रत अपरिग्रह का वर्णन जगत् के सम्पूर्ण धार्मिक ग्रन्थों में पाया जाता है। (१०) दशावशिक व्रत लेकिन जैनधर्म में इसे विशेष महत्त्व देकर इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन (१ एवं विश्लेषण किया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने कहा है “मूपिरिग्रहः” - अर्थात् - परिग्रह का अर्थ मूर्छाभाव - सांसारिक उपर्युक्त बारह व्रतों में प्रथम के पांच व्रतों में “स्थूल” शब्द इसलिये भौतिक पदार्थो में ममत्व या निजत्व की भावना। किसी भी पदार्थ के रख गया है कि गृहस्थी हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का प्रति ममत्व की भावना नहीं रखना, यह अपरिग्रह है। आवश्यक्ता से सर्वथा व सर्व प्रकारेण त्याग नहीं कर शकता। अतः उनका स्थूल दृष्टि अधिक किसी भी वस्तु का संग्रह करना जहाँ एक ओर समाज के प्रति से त्याग करने का विधान है। तात्त्विक दृष्टि से इनका महत्त्व मनुष्य को अन्याय है, वहाँ दूसरी ओर अपनी आत्मा का पतन है। अर्थात् तेरे मर्यादित बनाने और उसे संग्रहशील न बनाने में है। प्रथम चार व्रतों में मेरे के भेदभाव को छोड़कर, संग्रह प्रवृत्ति को त्यागकर, अपरिग्रहवृत्ति हमें जहां तक हो सके हिंसा, झूठ, चोरी और अब्रह्मचर्य का त्याग का अवलम्बन लेकर आज विश्व में जो द्वन्द्व और तनाव है उसे शांतिमय रखना चाहिए । अपरिग्रह व्रत इसलिए है कि मनुष्य आवश्यक्ता से तरीके से कम करने की प्रेरणा हमें अपरिग्रहवाद से लेनी है। जिनके अधिक संग्रह न करे । अधिक संग्रह की प्रवृत्ति ने ही आज मानव पास पैसा नहीं है वे अगर यह समझते हों कि हम अपरिग्रही हैं तो वे समुदाय को अशान्त बना रखा है। इसलिए भगवान् महावीर का कथन भूल करते हैं। अपरिग्रही भावना का सम्बन्ध बाह्य धनदौलत से न है कि प्रत्येक गृहस्थ अपनी आवश्यक्ताओं को निर्धारित कर यह नियम होकर हृदय की भावना से है। अत: धनवानों को यह नहीं सोचना करे कि मुझे इससे अधिक द्रव्य नहीं रखना । अगर अधिक द्रव्य बढ चाहिए की हम अपरिग्रही बन ही नहीं सकते । भगवान् महावीर की तो जाय तो उसे जनता जनार्दन की सेवा में लगा देना है। ऐसा करने से वाणी है कि अगर एक भिखारी के पास केवल तन ढकने को फटा- दूसरे गरीब लोग उसका उपयोग कर जीवन को गति दे पायेंगे। इससे पुराना चिथड़ा है लेकिन अगर उस चिथड़े के प्रति भी उसका मूर्छाभाव लोभवृत्ति कम होगी। द्रव्यप्राप्ति की होड़हड़प वाली नीति में होने (६) We are healed of a suffering only by experiencing it to the full. Jain Education Interational 2010_03 21780emy www.jainelibrary.org

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