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सूत्र सर्वार्थसिद्धिपदको पृथ ग्रहण करनेका कारण
सौधर्म और ऐशान देवोंकी जघन्य स्थिति
अन्य देवोंकी जघन्य स्थिति द्वितीय आदि नरकों की जघन्य स्थिति का वर्णन
प्रथम नरककी जघन्य स्थिति भवनवासी देवोंकी जघन्य स्थिति म्यन्तरोंकी अन्य स्थिति
व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्योतिषियोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति ज्योतिष्क देवोंके चन्द्र आदि भेदोंकी
उत्कृष्ट स्थिति लौकान्तिकों की स्थितिका वर्णन
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एक जीवपदार्थ नाना रूप है इस बात
का विविध युक्तियों द्वारा समर्थन २५० कात्मक एक जीवका ज्ञान कराने वाला शब्द दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है
वे क्रम और यौगपद्य कालादिके भेदकी
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सकलादेश और विकलादेशका अर्थ सकलादेश में सप्तभङ्गीकी संघटना सात भन ही क्यों होते हैं इस बातका विचार
मुख्यता और गौणतासे होते हैं २५२ ४२१
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'स्यादस्त्येव जीवः' भङ्गका स्पष्टीकरण 'स्यादस्त्येव जीवः' यह भङ्ग पर्याप्त है, अन्य भङ्गोंकी क्या श्रावश्यकता इस शंकाका परिहार व अन्य उपयोगी शंका-समाधान २५३ काल आत्म रूप आदिके द्वारा विचार २५७ शेष भङ्गोंका विचार व शंका-समाधान २५६ ४२७
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