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________________ सूत्र सर्वार्थसिद्धिपदको पृथ ग्रहण करनेका कारण सौधर्म और ऐशान देवोंकी जघन्य स्थिति अन्य देवोंकी जघन्य स्थिति द्वितीय आदि नरकों की जघन्य स्थिति का वर्णन प्रथम नरककी जघन्य स्थिति भवनवासी देवोंकी जघन्य स्थिति म्यन्तरोंकी अन्य स्थिति व्यन्तरोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्योतिषियोंकी उत्कृष्ट स्थिति ज्योतिषियोंकी जघन्य स्थिति ज्योतिष्क देवोंके चन्द्र आदि भेदोंकी उत्कृष्ट स्थिति लौकान्तिकों की स्थितिका वर्णन Jain Education International [ १६ ] मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ / २४७ ४१८ २४७ ४१८ २४८ ४९८ २४८ ४१८ २४८ ४१९ २४१ ४१९ २४९ ४१९ २४९ ४१९ २४६ ४१९ २४९ ४१९ २४६ ४१६ २५० ४१६ एक जीवपदार्थ नाना रूप है इस बात का विविध युक्तियों द्वारा समर्थन २५० कात्मक एक जीवका ज्ञान कराने वाला शब्द दो प्रकारसे प्रवृत्त होता है वे क्रम और यौगपद्य कालादिके भेदकी मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ सकलादेश और विकलादेशका अर्थ सकलादेश में सप्तभङ्गीकी संघटना सात भन ही क्यों होते हैं इस बातका विचार मुख्यता और गौणतासे होते हैं २५२ ४२१ २५२ ४२२ २५३ ४२२ For Private & Personal Use Only ४१६ २५२ ४२१ २५३ २५३ ४२२ ४२३ 'स्यादस्त्येव जीवः' भङ्गका स्पष्टीकरण 'स्यादस्त्येव जीवः' यह भङ्ग पर्याप्त है, अन्य भङ्गोंकी क्या श्रावश्यकता इस शंकाका परिहार व अन्य उपयोगी शंका-समाधान २५३ काल आत्म रूप आदिके द्वारा विचार २५७ शेष भङ्गोंका विचार व शंका-समाधान २५६ ४२७ ४२३ ४२५ www.jainelibrary.org
SR No.001811
Book TitleTattvarthvarttikam Part 1
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size11 MB
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