Book Title: Tattvarthvarttikam Part 1
Author(s): Bhattalankardev, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 22
________________ हाई में और उसके बाहर सूर्य चन्द्रादि कितने हैं २२० इस सम्बन्धी अन्य श्रावश्यक जानकारी २२० ज्योतिषियों की गति से दिन-रात श्रादि व्यवहारकालका कथन मुख्य कालकी सिद्धि अस्तिकायों में कालके स्वीकार न करने का कारण मनुष्यलोकके बाहर ज्योतिषियोंकी मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ अबस्थिति चतुर्थ निकायका नाम निर्देश वैमानिक शब्दका अर्थ तथा विमानोंके भेद वैमानिक देवोंके भेद वैमानिक देवोंके निवासस्थान ऊपर हैं वैमानिक देवोंके सौधर्म आदि स्थानों के नाम सौधर्म आदि शब्दोंकी कल्प संज्ञाका कारण सर्वार्थसिद्धि शब्दको पृथक् ग्रहण करने का कारण ग्रैवेयक आदिको पृथक् ग्रहण करनेका कारण २२१ २२२ Jain Education International २२२ [ १५ ] ४०६ ४०६ २२२ ४०८ २२१ ४०८ २२४ ४०७ निर्देश, वर्ण और परिणाम आदिके द्वारा लेश्या की सिद्धि ग्रैवेयकसे पहलेतक कल्प संज्ञाका ४०८ ४०८ २२२ ४०८ २२३ ४०८ २२३ ४०८ २२३ ४०९ प्रस्तार, देव परिषद् तथा देवताकी श्रायु आदिका विस्तृत वर्णन स्थिति प्रभाव आदिले उत्तरोतर देवों की विशेषता स्थिति आदि शब्दों का अर्थ देवोंकी गति आदि श्रागे श्रागे हीन गति श्रादि शब्दोंका अर्थ गति आदि शब्दों का पौर्वापर्य विचार २३६ ४०६ २२४ ४०६ २२४ नव पदको पृथक् ग्रहण करनेका कारण २२४ 'उपर्युपरि' पदके साथ दो दो कल्पों सम्बन्ध है सोलह कल्पों में इन्द्र विचार 'श्रानतप्राणतयो' व 'श्रारणाच्युतयोः' पदको पृथक रखनेका कारण २२५ ४०६ सौधर्म आदि स्वर्गों के स्थान, विमान ४०६ ४०६ २२५ ४०६ २२५ ४०६ २२५ ४०६ मूल पृष्ठ हिन्दी पृष्ठ २३६ देवोंके उत्तरोत्तर अभिमान हीनता में युक्ति सौधर्म आदि कल्पों में लेश्याका कथन २३७ पाठान्तरका निर्देश २३८ ४१२ ४११ ४११ ४१० २३५ २३५ ४१० २३६ २३६ ४१० ४१० ४११ कथन छह निकाय और सात निकाय देवोंका चार निकाय देवों में अन्तर्भाव हो जाता है लौकान्तिक देवोंका स्थान लौकान्तिक शब्दका अर्थ लौकान्तिक देवोंके भेद 'च' शब्दसे सारस्वत तथा श्रादित्य श्रादिके मध्यवर्ती देवोंके नाम विजय आदि विमानोंमें द्विचरमत्वका कथन २३८ ४१२ २४१ और विस्तारपूर्वक उनका वर्णन २४३ ४१५ द्विचरम शब्दका अर्थ व शंका समाधान अर्थविरोधका परिहार औपपादिक मनुष्योंसे इतर तिर्यञ्च हैं इसका कथन सूत्रस्थ 'शेष' पदका स्पष्टीकरण तिर्यग्योनि शब्दका अर्थ तिर्यञ्च सर्वलोक में निवास करते हैं। २४२ ४१५ २४२ ४१५ २४२ ४१५ २४३ ४१५ For Private & Personal Use Only २४४ ४१६ ४१४ २४४ ४१६ २४४ ४१६ २४५ ४१७ २४५ ४१७ ४१७ २४५ ४१७ इसका कथन २४५ ४१७ भवनवासियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन २४६ सौधर्म और ऐशान देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति 'अधिके' पदका अध्याहार सहस्रार कल्पतक होता है। २४६ सानत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्पके देवों को उत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मलोकसे लेकर अच्युत पर्यन्त देवों की उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन सूत्रमें आये हुए 'तु' शब्दकी सार्थकता २४७ अच्युत से ऊपर के विमानोंकी उत्कृष्ट स्थिति २४७ २४६ ४१७ २४६ २४७ ४१७ ४१७ ४१८ ४१५८ ४१६ www.jainelibrary.org

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