Book Title: Tattvartha Sutra me Nihit Gyan Charcha Ek Nirikshan Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: Kaumudi Baldota View full book textPage 4
________________ * 'जातिस्मरण' यह संज्ञा और जातिस्मरण ज्ञान के उदाहरण जैन कथाग्रन्थों में विपुल मात्रा में पाये जाते हैं । तत्त्वार्थ के प्रथम अध्याय की ज्ञानचर्चा में और टीकाकारों के व्याख्याओं में भी जातिस्मरणज्ञान की व्यवस्था दिखाई नहीं देती । वस्तुतः ‘स्मृति' संज्ञा के स्पष्टीकरण में यह अपेक्षित था । वस्तुत: जातिस्मरण की चर्चा अवधिज्ञान की संकल्पना के बहुत निकट जाती है । तथापि अवधिज्ञान की चर्चा में भी जातिस्मरण की चर्चा नहीं दिखाई देती । अतः सर्वसाधारण मान्यता यह रूढ हो गयी है कि जातिस्मरण विशुद्ध मतिज्ञान का एक प्रकार है * तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम्'-इस सूत्र में मन के लिए अनिन्द्रिय' शब्द का प्रयोग किया है । मन-चित्त और अंत:करण ये तीनों शब्द रूढ होने के बावजूद उमास्वाति ‘अनिन्द्रिय' शब्द का आग्रह रखते हैं । वस्तुतः अनिन्द्रिय शब्द धवला आदि प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों में एवं प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी मन के अर्थ में नहीं प्रयुक्त पाया जाता । शायद पातञ्जलयोगदर्शन में चित्त और अन्त:करण इन दोनों शब्दों का महत्त्व होने के कारण तत्त्वार्थ ने अपनी अलगता दिखाने के लिए अनिन्द्रिय शब्द का प्रयोग किया होगा । मन का महत्त्व कम करने के लिए भी अनिन्द्रिय शब्द की सहायता होती है । ऐसी भी बात नहीं है कि तत्त्वार्थ में मन शब्द का प्रयोग ही नहीं पाया जाता । क्योंकि मन:पर्यायज्ञान शब्द में स्पष्टत: मन शब्द का प्रयोग है । वहाँ अनिन्द्रिय शब्द का प्रयोग नहीं किया है । धवला जैसे ग्रन्थों में अनिन्द्रिय शब्द का प्रयोग 'इन्द्रियरहितता' दिखाने के लिए प्रयुक्त है। * इन्द्रिय और मन द्वारा ग्रहण किये हुए वस्तु का अवबोध किस प्रकार होता है यह दर्शाने के लिए मतिज्ञान का उत्तरोत्तर विकसित रूप अवग्रह-ईहा-अवाय और धारणा इन चार संकल्पनाओं के द्वारा उमास्वाति स्पष्ट करते हैं । कई अभ्यासकों ने इस सूक्ष्मता को उमास्वाति की विशेषता के तौर पर प्रस्तुत किया है । आगमों में दृढ धारणा होने के कारण ही ज्ञानमीमांसा को स्पष्ट करनेवाले ३५ सूत्रों में से ५ सूत्र अवग्रह-ईहा-अवायधारणा के स्पष्टीकरण करने के लिए उपयोजित किये हैं। ____ * इन्द्रियज्ञान के बारे में न्यायदर्शन की सामान्य अवधारणा यह है कि इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से अर्थात् सम्पर्क या सम्बन्ध से वस्तु का बोध अर्थात् अवग्रह होता है । इसपर अधिक विचारणा करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में इसके दो अपवाद बताये हैं । उमास्वाति के अनुसार चाक्षुष ज्ञान और मनोजन्य ज्ञान होने के लिए चक्षु और मन का विषय से प्रत्यक्ष संयोग नहीं होता । मन के बारे में उमास्वाति का कहना ठीक लगता है क्योंकि उसके लिए वस्तु से साक्षात् सम्पर्क आवश्यक नहीं होता । बाकी चार इन्द्रियों के बारे में हम कह सकते हैं कि सिर्फ स्पर्शज्ञान के लिए ही साक्षात् संयोग की आवश्यकता है । गन्ध-प्रकाश और शब्द ये तीनों जैन अवधारणा के अनुसार पुद्गलमय हैं । ये तीनों प्रकार के पुद्गल सम्बन्धित इन्द्रियों के सम्पर्क में आनेपर ही बोध या अवग्रह होता है । चाक्षुष ज्ञान के बारे में आधुनिक अवधारणा यह है कि वस्तु से परावर्तित प्रकाशकिरण जब नेत्रपटल के सम्पर्क में आते हैं तब वस्तु की प्रतिमा नेत्रपटल में प्रतिबिम्बित होती है । इसके पहले भी कहा है कि प्रकाशकिरण भी पुद्गलमय हैं । अत: गन्ध और शब्दज्ञान जिस प्रकार होता है उसी प्रकार चाक्षुष अवग्रह भी होता है । 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्'-यह सूत्र आधुनिक अवधारणानुसार अपवादसूत्र नहीं बन सकता । (४) श्रुतज्ञान का विशेष विचार : सभी लौकिक या व्यावहारिक ज्ञान के लिए पाँच इन्द्रियाँ एवं मन का महत्त्व अनन्यसाधारण है। इसी वजह से कुल आँठ सूत्रों में उमास्वाति ने ऐन्द्रियज्ञान की चर्चा की है । जैन परम्परा के अनुसार ज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्रोत आगमग्रन्थ है। उसे 'श्रृत' या 'आम्नाय' भी कहा जाता है । वस्तुत: अन्य दर्शनों में शब्दप्रमाण के अन्तर्गतPage Navigation
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