________________
की हुई नहीं दिखाई देती । उत्तराध्ययन के इस सन्दर्भ में उदारमतवाद जरूर दिखायी देता है परन्तु परवर्ती साहित्य में यही दिखाया गया है कि आध्यात्मिक योग्यता का धारक कोई भी व्यक्ति 'जैनीकरण' के बिना मोक्षगामी नहीं हुआ। उदाहरण के तौर पर हम जैन रामायण और जैन महाभारत देख सकते हैं ।
* अवधिज्ञान का सम्बन्ध मुख्यत: आत्मिक प्रगति और आत्मा द्वारा प्राप्त ज्ञान से है । अत: वस्तुतः उसमें कुअवधि की कोई सम्भावना ही नहीं है । कुअवधि संज्ञा के पिछे कोई कारण जरूर रहा होगा । इसकी कारणमीमांसा इस प्रकार की जा सकती है - समाज में कई प्रकार के तापस थे । उनके अवधिज्ञान के दर्शक प्रसंग भी पाये जाते हैं । खास कर, पातञ्जल योग में 'परचित्तज्ञान' और योग के द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष इन्द्रियबोधों के उदाहरण विभूतियों के वर्णन में पाये जाते हैं ।२३ उमास्वाति के पहले, पाजञ्जल योगसूत्रों की रचना और योग का प्रचलन हो चुका था । उनके द्वारा वर्णित अवधिदर्शन और जैन ज्ञानमीमांसा में कुअवधिज्ञान की अवधारणा की गयी होगी । जैनेतरों क द्वारा प्राप्त अवधिज्ञान को वे सम्पूर्णत: नकार नहीं सके । यथार्थ स्थान देने में उनका मन हिचकिचाया । परिणामक्श कुअवधि के दायरे में मिथ्यादृष्टियों के अवधिज्ञान को रखा गया होगा । यहीं वजह होगी कि जैन मुनियों द्वा उपयोजित सुअवधिज्ञान के उदाहरण कथाग्रन्थ में आते हैं लेकिन कुअवधिज्ञान के उदाहरण नहीं के बराबर पाये जाते हैं ।
I
* कुमति-कुश्रुत और कुअवधि सूत्र के अनन्तर सूत्र में तत्त्वार्थ ने खास कर दो शब्द प्रयुक्त किये हैं । वे हैं यदृच्छोपलब्धि और उन्मत्तवत् । २४ ऐसा प्रतीत होता है कि मादक और नशीली चीजों के सेवन से जो रंगबिरंगे दृश्य भासमान होते हैं, जो तात्कालिक है, जो भ्रमाधार है - उनको उद्देश्य कर के ही असल में 'कुअवधि' शब्द का प्रयोग किया होगा । बाद में वह सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि से जोडा गया होगा ।
अन्तिमतः हम कह सकते है कि मति - श्रुत-अवधि की अवधारणाएँ 'मिथ्यादृष्टि' और 'सम्यग्दृष्टि' से सम्बन्धित हैं । ये दोनों संज्ञाओं का उचित अर्थ लगाना आवश्यक है । जिस-जिस व्यक्ति में सामान्यत: विवेक, तर्कबुद्धि और पक्षपातरहितता है, उन उन व्यक्तियों को हम सम्यग्दृष्टि कह सकते हैं, चाहे वें जैनियों के तत्त्वअवधारणा-ज्ञानमीमांसा और व्रतों की पारिभाषिकता से अपरिचित क्यों न हो । अभिनिवेश दूर करने से ये तैन ज्ञान खाली ‘आध्यात्मिकता' की कक्षा से बाहर होकर 'नैतिकता' की कक्षा में समा सकते हैं ।
(ब) जैन ज्ञानमीमांसा से सम्बन्धित संकीर्ण विचार :
* विश्व के रहस्य जब Discovery आदि चॅनेल्स् पर उद्घाटित किये जाते हैं तब अपरिहार्यता से ज्ञानावरणीय संज्ञा की याद आती है । क्योंकि जैन मतानुसार भी 'आवरण' हटने से ज्ञान प्रगट हो जाता है ।
* ज्ञान की चर्चा के साथ जैन तत्त्वज्ञान और खास कर के आचार में 'भावनांक' को भी समान महत्त्व दिया जाता है । मतलब यह है कि इसे हम आधुनिक परिभाषा में बुद्ध्यंक (1.Q) और भावनांक (E.Q) कह सकते हैं । 'तुषमाष' पद का घोष करनेवाले शिवभूति मुनि" और एक एक प्रसंग पर चिन्तन कर के केवलज्ञान तक पहुँचनेवाले 'प्रत्येकबुद्ध’२६ आदि उदाहरणों द्वारा यह परिलक्षित होता है कि 'भावनांक' का महत्त्व भी जैन ज्ञानमीमांसा का अविभाज्य अंग है ।
* भ. महावीर का आयुष्यक्रम, ज्ञानाराधना, साधना और उपदेशकाल सब के सामने खुली किताब की तरह मौजूद है । तीव्र ग्रहणशक्ति के बावजूद भी उनके आयुष्य में गुरुकुलवास का स्थान स्पष्टत: से उल्लिखित है । अके जीवन में यथार्थ रूप से पाँचों ज्ञानों का यथायोग्य संयोग दिखाई देता है । बुद्धयंक और भावनांक का सम्मिश्रण है । हम यह तात्पर्य निकाल सकते हैं कि औपचारिक शिक्षण और अध्यात्म दोनों परस्परपूरक है ।
* आगमों में अन्तर्निहित विषयों का लेखाजोखा अगर कोई ले तो मालूम पडता है कि औपचारिक ज्ञान के अनुकूल विविध शास्त्रों के समकालीन विचार आगमों में ही उपलब्ध हैं । उदा. पण्णवणा, जीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय आदि । भ. महावीर को शायद यह अपेक्षित था कि निरीक्षण-परीक्षण के द्वारा
1