Book Title: Tattvartha Sutra me Nihit Gyan Charcha Ek Nirikshan Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: Kaumudi Baldota View full book textPage 1
________________ तत्त्वार्थसूत्र में निहित ज्ञानचर्चा : कुछ निरीक्षण (अखिल भारतीय दर्शन परिषद, ५७ वाँ अधिवेशन, पारनेर, महाराष्ट्र, १२ से १४ जनवरी, २०१३) पत्रव्यवहार के लिए पता : डॉ. कौमुदी बलदोटा २०३, 'बी' बिल्डींग, गीतगोविंद हौसिंग सोसायटी, महर्षिनगर, पुणे ४११०३७ दूरध्वनि : (०२०) २४२६०६६३ मोबाईल क्र. - ९१५८९१०३०० ई-मेल : sunil baldota@rediffmail.com दि. १०/०१/२०१३ शोधछात्रा : डॉ. कौमुदी बलदोटा, नानावटी फेलो, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ विषय व मार्गदर्शन : डॉ. नलिनी जोशी, प्राध्यापिका, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ प्रस्तावना : जैन साहित्य का इतिहास सामने रखनेपर यह तथ्य उजागर होता है कि प्राय: इसवी की पाँचवी शताब्दी तक पाँच प्रकार के ज्ञान की चर्चाही मुख्यत: से दिखाई देती है । ज्ञान का प्रामाण्य, प्रमाणों की संख्या आदि की चर्चा प्राय: पाँचवी शताब्दी के बाद न्याययुग से आरम्भ हुई । तत्त्वार्थसूत्र जो कि पहला और अग्रगण्य संस्कृत सूत्रबद्ध जैन दार्शनिक ग्रन्थ है, उसमें मुख्य रूप से ज्ञान के पाँच प्रकार ही निर्दिष्ट किये हैं। यह शोधनिबन्ध उस चर्चा से ही सम्बन्ध रखता है। विषय का चयन : आधुनिक युग ज्ञान का युग है । सभी ओर इन्फर्मेशन और टेक्नॉलॉजी की चर्चा जोर-शोर से हो रही है । दूरदर्शन के चॅनेल्स, प्रिंटेड और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इन्टरनेट, वेबसाईट आदि अनेकों स्रोतों से ज्ञान का महापूर दिखाई दे रहा है । जैन परम्परा में निर्दिष्ट ज्ञान के पाँच प्रकारों में उपरिनिर्दिष्ट ज्ञान की क्या व्यवस्था हो सकती है - इसका चिन्तन इस शोधनिबन्ध का प्रारम्भबिन्दु है। प्रत्येक विधान की या घटना की व्यवहार और निश्चय दृष्टि से समीक्षा करना, जैन दर्शन का स्थायीभाव है । व्यवहार से निश्चय तक और नैतिकता से आध्यात्म की ओर जैन विचारधारा का प्रवाह सहज स्वाभाविक रीति से चलता आया है । यही वस्तुस्थिति ज्ञान के पाँच प्रकारों को भी उपयोजित होती है । मति-श्रुत-अवधिमन:पर्याय और केवल इन पाँच में से पहले दो ज्ञान व्यवहारनय के स्तर पर हैं । अवधि और मन:पर्याय इन दोनों में नैतिकता और आध्यात्मिकता दोनों प्रतिबिम्बित हैं । केवलज्ञान की चर्चा सम्पूर्णतः अध्यात्म से याने निश्चयनय से सम्बन्ध रखती है। पाँचों प्रकार के ज्ञान की इतनी सांगोपांग और सूक्ष्म चर्चा तत्त्वार्थ के उत्तरवर्ती ग्रन्थों में पायी जाती है कि वह अगर शब्दांकित की जाय तो पूरा ग्रन्थ तैयार हो जायेगा । उस सारी पारम्परिक चर्चा को एक बाजू में रखते हए यहाँ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विशेष निरीक्षण जिज्ञासुओं के सामने रखें हैं।Page Navigation
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