Book Title: Tattvartha Sutra me Nihit Gyan Charcha Ek Nirikshan Author(s): Kaumudi Baldota Publisher: Kaumudi Baldota View full book textPage 8
________________ (६) मन:पर्याय का विशेष विचार : ___ जैन दर्शन के अनुसार, दूसरों के मनोगत भावों को जानना, मन:पर्यायज्ञान कहलाता है । मनवाले (संज्ञी) प्राणी किसी भी वस्तु या पदार्थ का चिन्तन मन द्वारा करते हैं । चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तन में प्रवृत्त मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता रहता है । वे आकृतियाँ ही मन के पर्याय हैं और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान मन:पर्याय है । मन:पर्यायज्ञान से किसी के मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद में अभ्यासवश अनुमान कर लेता है कि इस व्यक्ति ने अमुक वस्तु का चिन्तन किया । इसके दो भेद हैं - १) ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान और २) विपुलमति मन:पर्यायज्ञान ।१८।। * मन के बारे में वैज्ञानिकों में ही मतभेद है । वैज्ञानिकों के एक वर्ग की मान्यता यह है कि शरीर में 'मन' नाम की कोई स्वतन्त्र चीज अस्तित्व में नहीं है । मस्तिष्क के अनेक संवेदना-केन्द्रों में से कुछ केन्द्र सुख-दुःखआनन्द-खेद-क्रोध आदि भावनाओं का नियन्त्रण करते हैं । दूसरी मान्यता के अनुसार, मन के व्यापारों पर आधारित मानसशास्त्र नाम की पूरी ज्ञानशाखा प्रस्थापित की गयी है । जैन दार्शनिकों में भी कोई चिन्तक मन अणुरूप मानते हैं तो कोई मन को विभु (व्यापक) मानते हैं । किन्हीं जैन विचारवन्तों के मन को मध्यमपरिमाणी भी माना गया है । मन के बारे में होनेवाले आधुनिक मतभेद जैन विचारवन्तों में भी उपस्थित है। * मन:पर्यायज्ञान का अंग्रेजी रूपान्तर 'टेलिपथी' या mental knowledge इन दोनों प्रकारों से किया जाता है । इसमें दूसरा भाषान्तर अधिक ठीक लगता है क्योंकि टेलिपथी में जो अवधारणा है, वह मन का केवल एक व्यापार है। * जो बात अवधिज्ञान के बारे में बतायी है वह प्राय: मन:पर्यायज्ञान को भी उपयोजित हो सकती है । क्योंकि मानसशास्त्र की विविध शाखाएँ आज विकसित हो रही हैं । मानसशास्त्र के मुख्य दो शब्द 'कॉन्शस माइंड' और 'सबकॉन्शस माइंड' है । शायद जैन-दर्शन वर्णित ‘अन्तरात्मा' और 'बहिरात्मा' की अवधारणा इससे मिलतीजुलती है । परमात्मा को हम ‘सुप्रा कॉन्शस माइंड' भी कह सकते हैं । लेकिन इसमें मतभिन्नता भी हो सकती है। * संमोहनशास्त्र के अनुसार, विशिष्ट पद्धति से दूसरों के मन को संमोहित किया जा सकता है । इस पद्धति से दूसरों के मन की आकृतियाँ जानी जा सकती है । इसीलिए हम कह सकते हैं कि आधुनिक मानसशास्त्र मन:पर्यायज्ञान के निकटतम जा रहा है। * मन:पर्यायज्ञान के दार्शनिक विवेचन में अनेक त्रुटियाँ दिखाई देती है । अवधिज्ञान की तुलना में मन:पर्यायज्ञान को 'सूक्ष्म' माना है । लेकिन कथा-साहित्य में मन:पर्यायज्ञान द्वारा मनोगत भावों को जानने के उल्लेख अतिशय अल्पमात्रा में पाये जाते हैं । गर्भस्थ अवस्था में भ. महावीर ने उनकी माता के मनोगत भाव 'अवधिज्ञान' से जाने थे । गणधरों के मनोगत प्रश्न भ. महावीर ने केवलज्ञान' के द्वारा जाने थे । इन दोनों पौराणिक मान्यताओं में मन:पर्यायज्ञान का बिल्कुल भी जिक्र नहीं किया है । * सैद्धान्तिक दृष्टि से मन:पर्यायज्ञान 'आत्मा' को होता है । जैन अवधारणा में मन का स्थान पाँच इन्द्रियों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं रखा गया है । अगर होता तो मन:पर्यायज्ञान ‘मन' को हो जाता । लेकिन 'ज्ञान' गुण सिर्फ आत्मा का है । अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अगर मन का महत्त्व 'कम' है तो मन:पर्यायज्ञान को चौथे क्रम पर विशेषत: पूर्ण आत्मज्ञान के इतने निकट का स्थान क्यों दिया है ? मन के द्वारा जानी गयी वस्तुओं के स्वरूप के बारे में परवर्ती ग्रन्थकारों में भी मतभेद दिखायी देते हैं । * मन:पर्यायज्ञान के द्वारा 'दूसरों' के मनोगत भाव जानने को महत्त्व दिया है । लेकिन खुद' के मनोगत भावे के जानने के बारे में कुछ कहा नहीं गया है । * मन:पर्यायज्ञानी द्वारा जाने गए मनोगत भाव किसी को कहने का प्रसंग दार्शनिक ग्रन्थ या कथाग्रन्थ में नहीं पाया जाता । वह तो विशिष्ट व्यक्ति में यह ज्ञान है या नहीं', यह तो दूसरा मन:पर्यायज्ञानी या केवली ही कहPage Navigation
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