Book Title: Tattvartha Sutra me Nihit Gyan Charcha Ek Nirikshan
Author(s): Kaumudi Baldota
Publisher: Kaumudi Baldota

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Page 9
________________ सकता है । लेकिन इस प्रकार के कुछ कथन का प्रावधान अध्यात्मशास्त्र में नहीं है । अत: मन:पर्यायज्ञान आध्यात्मिक प्रगति के कसौटीशिला (Touch-stone) के रूप में ही माना जा सकता है जो केवलज्ञान तक व्यक्ति की प्रगति का एक साक्षी है । (६) केवलज्ञान का विशेष विचार : तत्त्वार्थ के आधार से जब केवलज्ञान की मान्यता रूढ हुई तब परवर्ती दार्शनिक ग्रन्थों में उसका स्वरूप निम्न प्रकार से बताया जाता है - केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी रूपी-अरूपी द्रव्यों में, सभी पर्यायों में और तीनों कालें में होती है ।१९ यह ज्ञान की अत्युच्च आध्यात्मिक अवस्था है । केवलज्ञान के धारक को ‘सर्वज्ञ' कहते हैं । केवलज्ञान का धारक व्यक्ति नियम से मोक्ष का अधिकारी होता है । * पंचप्रकारक ज्ञान में यह गृहीतक है कि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् आत्मा को जो ज्ञान है वे आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च है और पहले दो ज्ञान इन्द्रिय और मन पर अवलम्बित होने के कारण ‘लौकिक है, लोकोत्तर' नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि मति-श्रुत के बिना ज्ञान की प्रगति असम्भव है । केवल ‘सहायता के बिना' होने से केवलज्ञान ‘अत्युच्च' कैसे हो सकता है ? 'बन्ध जितना सत्य है उतना ही मोक्ष सत्य है'-यह सूत्रकृतांग में स्पष्टता से निर्दिष्ट किया है ।२० इसलिए ज्ञानों में तरतमभाव रखना उचित नहीं है। * धारणा यह है कि केवलज्ञानी लोकालोक को जानता-देखता है । अगर अलोक भी देखने के दायरे में आ जाय तो उसका ‘अलोकत्व' अबाधित नहीं रह सकता। ___ * मूर्त और अमूर्त सभी को जानने-देखने पर 'अमूर्तत्व'की संकल्पना का भी लय हो जाएगा। * त्रैकालिक विषयों का ज्ञान अनादि-अनन्त सहित होने से सृष्टि के उत्पत्ति-विनाश का प्रसंग आ जाएगा । तथा नियतिवाद की भी सर्वथा पुष्टि होगी। अगर केवली यह सब जानता है' तो ठीक है लेकिन अगर ‘देखता है', 'दर्शन करता है', तो वाकई उपरोक्त मुसीबत खडी होगी। * यह तार्किक असम्भवनीयता टालने के लिए ही परवर्ती विचारवन्तों ने स्पष्ट किया है कि केवली 'नियत' को 'नियत रूप' में और अनियत' को 'अनियत रूप में जानता है । कार्यकारणमीमांसा की दृष्टि से जैनियों की अवधारणा यह है कि विशिष्ट कार्य के निष्पादन में कर्म-पुरुषार्थ-स्वभाव-काल और नियति इन पाँचों घटकों का समन्वय होता है । अत: सब कुछ होने के पहले ही जानने में जो नियतिवाद है, वह कार्यकारण की अवधारणा में स्वीकारा नहीं जाता। * दार्शनिक ग्रन्थों में सर्वज्ञ की संकल्पना को परिलक्षित कर के खण्डनमण्डनात्मक वादविवादात्मक चर्चाएँ दिखायी देती है । यह संकल्पना अतार्किक होने के कारण आधुनिक जैन अभ्यासकों ने इसका उचित भावार्थ जनने का प्रयास किया है । पं. सुखलालजी, डॉ. सागरमल जैन जैसे विद्वानों ने यह भावार्थ व्यक्त किया है कि, 'उसे सर्वज्ञ कहा जाय जो हर-एक विषय को सापेक्ष रूप से जानता है, भाषिक व्यक्तीकरण में आग्रही नहीं रहता है और आयुष्य के रागद्वेष, सुख-दुःख आदि साक्षीभाव से देखता है।' आधुनिक परिप्रेक्ष्य में केवलज्ञान का अर्थ : आधुनिक परिप्रेक्ष्य में केवलज्ञान की एक तार्किक उपपत्ती सम्भव हो सकती है । 'केवल' इस शब्द का मूलभूत अर्थ 'एक' है । अंग्रेजी में उसका भाषान्तर 'specific' है । आधुनिक काल में विविध प्रकार के विज्ञानों की शाखा-प्रशाखासहित बहुत ही वृद्धि हो रही है । इसीलिए ज्ञान की दृष्टि से आज का युग specialization का युग है । वैज्ञानिकों ने भी यह मान्य किया है कि जब ज्ञान सूक्ष्म, सूक्ष्मतर हो जाता है तब वह अधिकाधिक specialized ही हो जाता है । सब प्रकार के विद्वान तीनों कालों में जानना अशक्य बात है । एक एक का ज्ञान

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