Book Title: Tattvagyana Balpothi Sachitra Author(s): Bhuvanbhanusuri Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 6
________________ अनुमोदना प.पू.आचार्यदेव श्रीमद् विजयजयसुंदरसूरिजी म.सा. । धार्मिक चित्रजगत् को हम याद करें तब अन्तिम शतक में पू.गुरूदेव श्री भुवनभानुसूरिम.सा. स्मरणपट में आये बिना नहीं रहते। हजारों सालों से जैनशासन में चित्रों से धार्मिक प्रसंगो की अभिव्यक्ति की गौरवपूर्ण परंपरा रही है । एक पूरे पन्ने को पढने से जितना स्मरणांकित नहीं होता है उतना एक ही चित्र को देख लेने से याद रह जाये उसमें आश्चर्य नहीं है। पू.स्व.गुरूदेव श्री कईबार कहते थे कि तीर्थंकर भगवन्त आजन्म बैरागी होते है फिर भी 'राजीमती कुं छोड के नेम संजम लीना, चित्रामण जिन जोवते वैरागे मन भीना' यह पार्श्व पंचकल्याणक पूजा की पंक्ति जिन्होंने पढी हों उनको ख्यालमें आ जायेगा की श्री पार्श्वनाथ भगवान का चित्त भी - राजीमती का त्याग कर संयम ग्रहण करने जा रहे नेमनाथ प्रभुजी का चित्रपट देखकर बैराग्य से वासित और प्लावित हो गया था। पूर्वकालीन ऋषियों, मुनियों और धर्मिष्ठ गृहस्थों ने चित्रपटों पर लाखो रूपये और किमती समय का जो योगदान दिया है उन सब के हम ऋणी है। पूज्यश्री को एक बात का बहुत खेद था कि आज के युगमें अत्यंत बिभत्स गन्दे विकृत मलिन दुराचारों की भेंट देतें चित्रों को देख देखकर करोडो लोग पापों की गठरियों के ढेर बांध रहे हैं तब प्रजा को धर्म और नीति का शिक्षण देनेवाले चित्रों की आर्ट गैलेरी गाँव गाँव ओर नगर नगर में होनी चाहिए किन्तु जैनियों का इस ओर अब प्रायः ध्यान नहीं के बराबर है। जैन इस कार्य में बहुत कम दिलचस्पी दिखाते है । सचमुच अगर बालकों-युवानों को हम संस्कारी बनाये रखना चाहते तैं तब गाँव गाँव हर तीर्थों में सुसंस्कारो का दान करती चित्रशालायें होनी अत्यावश्यक है। पूज्य श्री गुरूदेवने अपने अस्तित्वकाल में अत्यंत कार्यव्यस्त रहते हुए भी धार्मिक चित्रों को तैयार कराने में बहुत समय लगाया था | धर्मक्रियाओं का चित्रांकन उनकी कारकिर्दी के गगन का चमकता हुआ सितारा है। पू.हेमरत्न सूरिजी म.सा. और मुनिराज श्री संयमबोधिविजयजी स्व. पूज्यश्री की इस परंपरा को निभाने के लिये कटिबद्ध है तब सुश्रावक कुमारपालभाई से हम एक आशा रख सकते है कि वे पूज्य स्व. गुरूदेवश्री के जीवन प्रसंगों की एक चित्रमय किताब तैयार करावें | वह एक अमुल्य श्रद्धांजलि गिनी जायेगी। इति शम् Jain Education international www.janolibrary.orgPage Navigation
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