Book Title: Tattvagyana Balpothi Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 41
________________ पुण्य-पाप अर्थात् शुभ-अशुभ कर्म जीव में कौन लाता है ? आस्रव....। कपडे पर तेल के धब्बे पर जैसे धूल चिपकती है वैसे आसव के कारण आत्मा पर कर्म-धूल चिपकती है, अथवा आस्रव मानों जीवरुपी घर की खिडकियाँ हैं जिसमें से कर्मरुपी धूल जीव-घर में प्रवेश करती है। अथवा मानो कि आस्रव एक सुराख है जिसके द्वारा कर्म-धूल जीव में भरती है । (देखिये चित्र) अथवा पाठ १४ के चित्र अनुसार आस्रव मानो मुख्य नाली है, जैसे घर की नाली गन्दे पानी को मोरी में इकट्ठा करती है, नाली सरोवर में कूडा खींच लाती है वैसे इन्द्रिय इत्यादि आस्रव जीव में कर्म - कूडा लाकर इकट्ठा करते हैं। आस्रव मुख्य पांच है - (१) इन्द्रिय (२) कषाय (३) अव्रत (४) योग और (५) क्रियाएँ । (१) अपनी आँखे, जीभ, कान वगैरह इन्द्रियाँ दिखाई देते जड पदार्थों की ओर राग-द्वेष से (अच्छा-बुरा मानकर ) दौडती हैं और तत्क्षण जीव के साथ कर्म का जत्था चिपकता हैं । (२) हम क्रोध करते है, गर्व करते हैं, माया-कपट करते हैं या लोभ ममता का सेवन करते हैं तो तत्काल आत्मा पर कर्म चिपकते हैं। ये सभी कषाय कहलाते हैं । इसी प्रकार हास्य (मजाक से या स्वाभाविक), शोक, हर्ष (आनन्द), खेद, भय, मैल गन्ध आदि के प्रति या वैसे वस्त्रादि धारण करनेवाले के प्रति तिरस्कार, ईर्ष्या, बैर, कुमति, काम-वासना, इन सभी को भी कषायों में ही समझना है । (३) चाहे कभी हिंसा न करें, झूठ न बोले, चोरी-अनीति न करें, स्त्री-संबंध या ज्यादा मोजशौक न करें या अतिशय धन-दौलत-परिग्रह न रखें परन्तु यदि 'ये मैं कदापि नहीं करूँगा'। ऐसा व्रत प्रतिज्ञा न हो तो यह अव्रतअविरति आस्रव कहलाएगा। इससे भी पापकर्म नहीं करने पर भी कर्म बँधते हैं। जैसे घर का उपयोग नहीं करने पर भी मालिकी हो तो टैक्स भरना पडता है, वैसे ही पाप न करने पर भी पाप करने की अपेक्षा रखने से पापकर्म बँधते हैं । (४) अपने मन से विचार, वचन से वाणी और काया से बरताव करते हैं वह 'योग' आस्रव है । इसमें विचारना, बोलना, हाथ-पाँव हिलाना-डुलाना, चलना-दौडना वगैरह आता है । (५) क्रिया आस्रव में मिथ्यात्व वगैरह की चेष्टा आती है। कुल २५ प्रकार की क्रियाएँ हैं जो गुरु के सत्संग से जानें । ये तो कर्मबंध के सामान्य कारणभूत आस्रव गिने । फिर प्रत्येक कर्म के भिन्न-भिन्न आस्रव भी हैं। उदाहरण के तौर पर ज्ञान- ज्ञानी की, पुस्तक वगैरह की आशातना से ज्ञानावरण कर्म बँधते हैं। जीव की दया सातावेदनीय पुण्य बँधाते हैं, इत्यादि । देव, गुरु और धर्म का राग, पाप पर द्वेष, धर्म-क्रिया ये शुभ-आस्रव हैं । Jain Education international ३९ rsonal Use Only आस्रव

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