Book Title: Tattvagyana Balpothi Sachitra
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 43
________________ आस्रव से आत्मा में कर्म चिपकते हैं, जो जो आस्रव को रोकनेवाली, बन्द करनेवाली, कर्म को रोकनेवाली प्रवृत्ति होती है वह संवर कहलाती है। ऐसे कर्म को रोकनेवाले संवर मुख्यतया ६ हैं । (१) समिति, (२) गुप्ति (३) परीसह (४) यतिधर्म (५) भावना और (६) चारित्र । (१) समिति अर्थात् अच्छी तरह से सावधानीपूर्वक जयणा (देखभाल) वाली प्रवृत्ति । जैसे कि (अ) चलने में जीव नहीं मरे इसकी सावधानी रखना (ब) बोलने में हिंसक या झूठ नहीं बोले उसकी सावधानी । (क) हिंसा-माया-अहंकार आदि पापों बिना खान-पान आदि जीवन जरुरियात की सामग्री प्राप्त करनी और इस्तेमाल में आए उसकी सावधानी । (ड) वस्तु को लेने रखने में या (इ) मल-मूत्रादि त्यागने स्थान पर भी जीव नहीं मरे इसकी सावधानी रखनी । (२) गुप्ति अर्थात् अशुभ (खराब - हीन) विचार, वाणी और बर्ताव को रोककर शुभ विचार, वाणी और वर्तन व्यवहार में रमण करना । (३) परीसह अर्थात् भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, डांस-मच्छर, रोग-वेदना, अज्ञान वगैरह को कर्म के नाश में सहायक समझकर शान्ति से सहन कर लेना, इसी तरह सत्कार, होशियारी आदि में जरा भी अहंकार या हर्ष नहीं करना ये भी परीसह । (४) यति-धर्म अर्थात् साधु भगवन्तों के जीवन में सहजरुप से सधा हुआ आचरण । वह १० प्रकार का है (१) क्षमा (२) नम्रता (विनयशील होना), (३) सरलता (४) निलभता (सामग्री या संयोग पर आसक्ति नहीं) (५) सत्य (६) संयम (७) तप (८) त्याग (९) अपरिग्रह ( जरूरत से ज्यादा सामग्री नहीं रखना) और (१०) ब्रह्मचर्य । ये तत्त्व जैसे-जैसे जीवन में सधते जाएँगे वैसे-वैसे कर्म आते हुए अटकेंगे । (५) भावना अर्थात् वैराग्य, भक्ति, उदारता आदि गुण पैदा करनेवाला अच्छा चिंतन । उदाहरण के तौर पर जगत के सभी संयोग नाशवन्त हैं, जीवन को देव-गुरु और धर्म के बिना किसी की शरण नहीं है, संसार विचित्र और असार है' आदि । शास्त्रों में अनित्य, अशरण वगैरह १२, मैत्री आदि ४ और अन्य अनेक प्रकार की भावनाएँ बताई हैं । (६) चारित्र अर्थात् पच्चक्खान (प्रतिज्ञा) करके हिंसा आदि पाप प्रवृत्तियों को छोडना तथा सामायिक वगैरह । प्रभु-भक्ति, शासनसेवा वगैरह धर्मकार्य में जुडने से सांसारिक पापप्रवृत्ति जितनी रुके उतने प्रमाण में संवर हुआ कहलाता है। Jain Education International ४१ संवर

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