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कवि ने इस रचना का हेतु दिखाते हुए कहा है- “न कवियश के लिए, न पूजा-स्थान बनूं ऐसी बुद्धि से और न लोक के चित्त में चमत्कार पैदा करूं ऐसी इच्छा से इस प्रबंध की रचना मैं करता हूँ, केवल आंतरिक दुश्मनो के चक्र को नष्ट करनेवाले श्रीसुमतिप्रभु के चरितांश के किर्तन से मैं स्वयं को प्रसन्न करूं ऐसा सोचके इस कथा-प्रबंध की रचना करने को उद्यत हुआ हूँ। ऐसा करने पर दूसरों को भी लाभ हो तो अधिक अच्छा है ।" (पृ. ३, गा. ३६-३८)
__ इस तरह पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ के जीवनचरित्र को केन्द्रवर्ती विषय बनाकर ग्रंथकारने चालीस से अधिक रसप्रद उपदेश कथाओ द्वारा जैन धर्म और दर्शन के अनेक तत्त्वों को अत्यंत मधुर प्रांजल भाषामें कौशल्यपूर्ण रीति से पेश किया है ।
इन कथाओ में ग्रंथकार ने अपनी कल्पना से रची कथाओं के साथ लोकसाहित्यमें प्रचलित कथाओं का विनियोग भी किया है।
संक्षिप्त कथासार प्रस्ताव १ (पृ. १-२४)- प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव, पंचम तीर्थंकर सुमतिनाथ, तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर तथा शेष जिनों को वंदन करके (पद्य १-५) एवं श्रुतदेवी, गुरुजनों, गौतम गणधर को नमस्कार करके (५-९) ग्रंथकार कथाका प्रारंभ करते हैं, जिनधर्मकी प्रशंसा करके निर्जरा हेतु सुमतिनाथ भगवान के तीन भवों में बद्ध चरित्र की रचना का संकल्प करते हैं (१०-२७), फिर सज्जनस्तुति आदि करके कथाप्रबंध का प्रारंभ करते हैं (२८-३८) ।
। भगवान सुमतिनाथ के तीन भवों में प्रथम भव पुरुषसिंह नामक राजकुमार का था । पुरुषसिंह-भवकी कथा प्रथमार्धमें अतिविस्तार से दी गई हैं।
पुरुषसिंह के पिता शंखपुर नगर के राजा विजयसेन थे । विजयसेन की सभा में एकबार सुमंगल नामक एक सार्थवाह आता है। वह बताता है कि गंधपुरनगर के राजा तारापीठकी पुत्री राजकन्या सुदर्शना विजयसेन राजा को वरण करने के लिए सार्थ के साथ आ रही थी तब रास्तेमें कोइ अदृष्ट तत्त्व द्वारा उसका अपहरण हो गया है। इस से राजा आनंद और दुःख दोनों का भाव अनुभव करता है । शुभ शकुनों द्वारा इस कन्या से विजयसेन का वरण होगा ऐसा आश्वासन मतिसागर मंत्री राजा को देता है।
एकदा मृगया के लिए निकले विजयसेन को अश्व उठा के एक अरण्यमें ले गया। वहां एक सरोवर के किनारे पहुँचा तब किसी स्त्री का सहाय के लिए शब्द सुना । वहां पहुंचने पर एक सुंदरीने उसके पास भोग के लिए प्रार्थना की । शीलवान राजा ने उसे इनकार कर दिया । सुंदरीरूप धारण करनेवाली व्यंतरी ने अपने पति
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