Book Title: Suktavali
Author(s): Nilanjana
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ 94 आ श्लोक संग्रहनी शरूआत जिनेश्वरने वंदनाथी करवामां आवी छे, ज्यारे अंतमां समाप्तिसूचक कोइ श्लोक के लखाण नथी. आ संग्रहमांना मोटा भागना श्लोको बीजा कोइ सुभाषितसंग्रहमां जोवा मळता नथी. ए हकीकत छे. तेमणे अहीं आपेलो गुणो अंगोनो श्लोक नं. ५२ लक्ष्मणना 'सूक्तिरत्नकोश' मां श्लोक नं. ५०५ तरीके मळे छे. ते ज प्रमाणे आ संग्रहनो श्लोक नं. ६८, भातृहरिना 'शृंगारशतक' मां मळे छे (नं. ५९). आ संग्रहनां श्लोकोना व्यवस्थित आयोजननी खामी होवा छतां आ लघु संग्रहना केटलाक श्लोकोमां रजू थयेला उमदा अने प्रेरक विचारोने लीधे आ श्लोक संग्रह अगत्यनो बनी रहे छे. आमांना नमूनारूप श्लोको अहीं रजू कर्या छे : आ संग्रहना कर्तानो सर्वधर्मसमभाव अने पांडित्य नीचेना श्लोकमां केवी सरस ते व्यक्त थाय छे : अर्हन् हरो हरिरनादिरनाहतश्च बुद्धो बुधो निरवधिर्विधिरव्ययश्च । इत्याद्यनेकविधनिर्मलनामधेयं शुद्धाशयः परमहंसमहं नमामि ||२४|| मनुष्यो रस्तामां चालतां आगळ मारो निर्वाह केम थशे एनी चिंता करे छे, संसार नामना निःसीम मार्गमां आगळनी चिंता वगर स्वस्थपणे चाले छे ! Jain Education International मार्गे लोकः कति [पय] पदक्षेपसाध्ये पुरस्तात् निर्वाहो मे कथमिति भवेच्चिन्तया व्यग्रचित्तः । संसाराख्ये पुनरिह पथि प्रत्यहं लङ्घनीये निःसीमेऽस्मिन् किमिति कुधियः सुस्थिताः सञ्चरन्ति ||३२|| आ सुभाषितोमां दृष्टांत आपीने विचारनुं समर्थन करवामां आव्युं छे. विना गुरुभ्यो गुणनीरधिभ्यो जनोऽभि धर्म न विचक्षणोऽपि निरीक्षते कुत्र पदार्थसार्थं विना प्रकाश शुभलोचनोऽपि ॥ ४२ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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