Book Title: Stavan Chovisi
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 2
________________ 114 March-2002 ए सेवकनी रे वीनती मानज्यो, दिन दिन लागुं रे पायोजी । श्रीजिनचंद्र सूरीश्वर तणो, हीरसागर गुण गायोजी ॥७ऋ.|| इति श्री ऋषभदेव स्तवनं ॥ १. सुख पा{ २. ते तेहने पासोजी । (मन शब्द नथी) श्री अजितजिनस्तवन नीदरडी वेरण० ए देशी ॥ सुगुण सने ही साहिबा अवधारो हो मुझ अरदास । चरण सेवक हुँ ताहरो महिर करी हो पूरो दासनी आस ॥ सु० ॥१|| मन मधु चरणे मोही रह्यो रस स्वादे हो रह्यो लपटाय । परिमल महेंके ए घणुं बीजा कुसुम हो नवि आवे दाय ॥ सु० ॥२॥ कर जाणे प्रभुजीने पूजीए रसना जाणे हो गुण गाऊं सदीव । नयण ते दरिसण नित चाहे नित ध्याये हो रत्नत्रय जीव ॥ सु० ॥३॥ उत्तम संगति अति भली जे भांजे हो अंतरनी पीड । अजित 'संगति मुझ मन वसी दूर करो हो भयभयनी भीड ।। सु० ॥४॥ विनता नयरी जितशत्रु तणो विजयाराणी हो केरो नंद । श्रीजिनचंद्रसूरि तणो हीर प्रणमें हो सुख परमाणंद ॥ सु० ।।५।। इति अजित जिन स्तवनं ॥ १. संगत । श्री संभव जिन स्तवन । ईडर आंबा आंबीली रे । ए देशी ॥ संभव साहिब तुं धणी रे तारणतरण तुं देव । हरीहर देव अच्छे घणां रे अवर न चाहुं सेव ॥१॥ जिणेसर ! तुं मुझ प्राण आधार, करो सेवकनी सार । ए आंकणी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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