Book Title: Stavan Chovisi Author(s): Jinsenvijay Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 7
________________ 119 अनुसंधान-१९ तारक बिरुद ताहरू रे सफल करो जिनराय सो० । सेवकने जो तारस्यो रे तो जगमा शोभा थाय सो० ॥८॥ चं० ॥ श्रीजिनचन्द्र 'सागरु रे भवभव तुजस्युं राग सो० । होरसागर प्रभु बाहे ग्रही रे सुजस वधारो 'सोभाग सो० ॥ ५ ॥ चं० ।। १. चन्द्र प्रभु मन वस्यारे २. श्री जिनचन्द्र गुण सागरु रे ३. वधारो भाग श्रीसुविधिनाथस्तवन झूमखडानी देशी ॥ श्री सुविधि जिन पूजीई रे पूजतां सुख थाय सोभागी साहिबा । द्रव्य भाव जे साचवे रे तेहने मुगति उपाय सो० ॥१॥ प्रबल पुण्य पसायथी रे पाम्या सुविधि जिणंद सो० । अनंत खजानो प्रभु पासोरे सेवे सुरनर इंद सो० ॥२॥ मोटा जाणी सेवीई रे सुखना कारण ठाम सोग वांछीत रतन आपो सदा रे बलि जाउं ताहरे नाम सो० ॥३॥ उपसमरस वरसो सदा रे समकित केरी टीप सो० । रत्नत्रयी मोती नीपजे रे मुझ मन केरी छीप सो० ॥४॥ ते जिनचंद्र प्रभु दीजई रे सेवकने सुख थाय सो० । हीरसागर प्रभु जगधणी रे करो घणो पसाय सो० ॥५॥ इति श्री सुविधिनाथस्तवनं ॥ १. श्री सुविधि जिन सुविधि पूजीई रे. २. पासे रे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19