Book Title: Stavan Chovisi
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 11
________________ 123 अनुसंधान-१९ ध्यातां(ता) ध्यान ने ध्येय एके करी भाव हुई परमाण मे० । जिनचन्द्र पद आपीइ हीरसागर सुख खाण मे० ॥ वि. ५॥ इति विमलनाथ स्तवनं । १. सधे श्रीअनंतनाथस्तवन हुं तो वारि ढोलणि । ए देशी ॥ श्रीअनंत जिन तारयो हो राज अनंत चतुष्टय गेह वारि म्हारा साहिबा । चौतीश अतिशये राजतो हो राज वाणी वरसे सुधारस मेह वा० ॥१॥ भविजन-मोर क्रीडा करे हो राज वरसें भगतिने मनखेत वा० । समकित अंकूरा उगीया हो राज श्रद्धा प्रतीत समेत वा० ॥२॥ व्रत फूल प्रगट्या सदा हो राज फल्या शिवफल सुख वा० । आतम रिद्धि प्रगट करी हो राज भांगी अनादिनी भूख वा० ॥३॥ प्रभुनिमित्त लही करी हो राज जे करसे उपादान सुद्ध वा० । प्रभुसेवा मुझने गमे हो राज जेहवा साकर दुद्ध वा० ॥४॥ अनंतजिन मुझ आपीइ हो राज जिनचंद्र सुख नितमेव वा० । हीरसागर तुम पयतणी हो राज करे अहोनिशि तुम सेव वा० ॥८॥ इति श्री अनंतजिन स्तवनं ॥ श्रीधर्मनाथस्तवन चतुर सनेही मोहना ए देशी ॥ श्री धरमनाथ स्वामी सुणो तु मे धर्म प्रगट को स्वामी रे । आतम धरमनो अरथी छु | कहिदुं शिवगामी रे ॥ धर्म० ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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