Book Title: Stavan Chovisi
Author(s): Jinsenvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहीरसागर कृत स्तवन चोविशी । -सं. मुनिजिनसेनविजयजी लींबडी ज्ञान भंडारनी ९ पानांनी आ प्रत चोवीश जिनेश्वर भगवंतनां स्तवनोनी छे. आ चोवीशी अप्रगट होवानुं जणायुं छे, आना कर्ता-रचयिता तरीके "श्री जिनचंद्र सूरीश्वर तणो हीरसागर गुण गायोजी" ए पंक्तिमां खरतरगच्छीय श्री जिनचंद्र सूरिजीना शिष्य हीरसागरजी छे तेवो स्पष्ट निर्देश छे. रचना संवत के लेखन संवत जणावी नथी परंतु प्रति उपरथी आनो लेखनकाल सत्तरमा सैकानो पूर्वार्ध गणी शकाय, स्तवनोमां शब्दो-उपमाओ व. खूबज आनंददायी छे. लीबडीना भंडारमाथी ज आ स्तवनोनी बीजी पण एक प्रति प्राप्त थई छे. ते प्रमाणमां वधु अर्वाचीन छे. तेमां मळता पाठांतरो अहीं पादटीपमां नोंध्या छे. श्री शारदायै नमः । श्री ऋषभजिन स्तवन अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी ए देशी ॥ ऋषभजिणेसर साहिब सांभलो, सेवकनी अरदासोजी । मनडुं मोद्यं रे प्रभु चरणांबुजे, प्रभु पूरो मननी आसोजी ॥१॥ ऋ. | हुं सहती रे घणां दिवसनी, सफल थई मुझ आजोजी । मन-तन विकस्यां रे मालती फुल ज्यु, प्रभु सेवे अविचल राजोजी ॥२।। ऋ.॥ मन प्रभु चरणे रे विलगुं माहरु, जिम सुत मातने पासोजी । तिम प्रभु ध्याने रे सुख पामुं सदा, प्रगटे घणुं सुख वासोजी ॥३।। ऋ. || सेर्बुजा केरारे प्रभुजी राजीया, उद्धर्या केई अनाथो जी । सरणागत जाणी स्वामी उद्धरो, किम छोडुं अविहड साथोजी ॥४॥ ऋ.॥ सात राज जइरे अलगा तुमे वस्या, पण भगते चित्त हजूरो जी । करुणारस अमृत पीऊं सदा, जिम पा, 'सुख भरपूरो जी ॥५||ऋ.।। जे जेमने रे जे जेहने मन वसे, ते तेहने मन पासोजी । मुझ मन प्रभुजी रे तुमे वसी रह्यां, आपो अविचल गुण वासोजी ॥६॥ ऋ.।। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 March-2002 ए सेवकनी रे वीनती मानज्यो, दिन दिन लागुं रे पायोजी । श्रीजिनचंद्र सूरीश्वर तणो, हीरसागर गुण गायोजी ॥७ऋ.|| इति श्री ऋषभदेव स्तवनं ॥ १. सुख पा{ २. ते तेहने पासोजी । (मन शब्द नथी) श्री अजितजिनस्तवन नीदरडी वेरण० ए देशी ॥ सुगुण सने ही साहिबा अवधारो हो मुझ अरदास । चरण सेवक हुँ ताहरो महिर करी हो पूरो दासनी आस ॥ सु० ॥१|| मन मधु चरणे मोही रह्यो रस स्वादे हो रह्यो लपटाय । परिमल महेंके ए घणुं बीजा कुसुम हो नवि आवे दाय ॥ सु० ॥२॥ कर जाणे प्रभुजीने पूजीए रसना जाणे हो गुण गाऊं सदीव । नयण ते दरिसण नित चाहे नित ध्याये हो रत्नत्रय जीव ॥ सु० ॥३॥ उत्तम संगति अति भली जे भांजे हो अंतरनी पीड । अजित 'संगति मुझ मन वसी दूर करो हो भयभयनी भीड ।। सु० ॥४॥ विनता नयरी जितशत्रु तणो विजयाराणी हो केरो नंद । श्रीजिनचंद्रसूरि तणो हीर प्रणमें हो सुख परमाणंद ॥ सु० ।।५।। इति अजित जिन स्तवनं ॥ १. संगत । श्री संभव जिन स्तवन । ईडर आंबा आंबीली रे । ए देशी ॥ संभव साहिब तुं धणी रे तारणतरण तुं देव । हरीहर देव अच्छे घणां रे अवर न चाहुं सेव ॥१॥ जिणेसर ! तुं मुझ प्राण आधार, करो सेवकनी सार । ए आंकणी । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 अनुसंधान-१९ सोहे सोवन 'सिंघासणे रे सोवनवरणी काय । तुरंगीसुत सेवा करे रे लंछण मिसि जिन पाय |जि०||२|| धन धन राजा जितारिने रे धनधन सेना माय । सावत्थी नयरीनो धणी रे, सूरि जन गुण गाय |जि० ॥३॥ बार उघाडें मुगतिना रे संभव सुख दातार । सार करो प्रभु माहरी रे वडभागी किरतार |जि०॥४॥ श्रीजिनचंद्र पूजो सदा रे जीम भवजलधि तराय । हीरसागर निझर करो रे दिन दिन अधिक पसाय |जि०॥५॥ __ इति संभवनाथ गीतं ॥ १. सिंहासणे. श्री अभिनंदन जिन स्तवन । सजणदलनी ए देशी ॥ श्रीअभिनंदन प्रभु माहरा सुखदाई महाराज जिनजी । नयण सलूणे लोयणे जोउं गरीब निवाज जिनजी ॥१॥अभि० ॥ लख चौरासी हुँ भम्यो घरघरमें मुझ वास जि० । चौद राजना चोकमां नाटिक कीधा खास जि० ॥२॥ अभि०] नाम कर्मना जोरथी नवनव बणाव्या वेस जि० । मगन थई तिणमें रह्यो किम संसार तरेस जि० ॥३॥ अभि० ॥ प्रगट्या पुण्य पूरव तणां मिलीया अभिनंदन नाथ जि० । हवे प्रभु महेर करो घणी सेवकने तारो ग्रही हाथ जि० ॥४||अभि०॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 March-2002 श्रीजिनचंद्र सेवक ताहरो हुं तो सेवा करुं करजोडि जि० । हीरसागर वंछीत इदीइं पुंहचे मननी कोडि जि० ॥५॥ अभि०॥ इति श्री अभिनंदन स्तवनं ॥ श्री सुमतिनाथ जिन स्तवनं । घरि आवो० ॥ सुमति जिणेसर सेवीइं ए तो सुमति तणो दातार । जस घटे सुमति वसे सदा तेह उतरे भवजल पार ||सु०॥१॥ सुमति सुमत गुणे भर्या ए विरत वधू भरतार । सुमत ने विरत ए बे मिली करे भविजननई उपगार ।।सु०॥२॥ मेघ महीपति कुलतिलो धन धन मंगला मात । असरण ने सरण सहाय छौ प्रभु ! तुमे छो जगतना' तात ॥सु०॥३॥ नयण कमल दल पांखडी मुख सोहे पुनिम चंद । प्रभुनुं वदन निरखंतां सुमति प्रग? सुख कंद ||सु०॥४॥ श्रीजिनचंद्र रिदय निहालिई सेवक जन तुम्हारो रे दास । हीरसागर प्रभु सुख घणां प्रभु ! आपो निकटें वास ||सु०॥५॥ इति श्री सुमतिनाथ स्तवनं ॥ १. जगना तात, २. मुख, ३. तुमनो.. श्री पद्मप्रभजिनस्तवन माहरु मन० ए देशी ॥ श्रीपद्मप्रभुजीनी करूं सेवना. रे मन वचन' कायने जोग । प्रभु दीठे प्रभुता सांभरे रे हुइ निमित्तनो भोग ।श्री०॥१॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १९ जन्म मरण भय सोग दूरे गयो रे नाठा करम कठोर । परधन हरवा हरखें आवीया रे जिम नाठेर दिनकर चोर || श्री० ||२|| मोहमेवासी केडे चाले नहीं रे स्युं करीइं जगनाथ ! ! राग द्वेष मद मच्छर घणुं रे आवीने द्ये छे बाथ | श्री०||३|| नेक निझर साहमुं जोई करी रे गिरुओं ने गुणवंत । उपसम ध्यान तीर-तरकस ग्रहीरे अरि दूरि कर्या भगवंत || श्री ० ||४| श्रीजिनचंद्र महिर करो घणी रे सेवक जन गुणगाय । हीरसागर प्रभु मंगल मालिक (का) रे अनुपम लच्छि सुहाय ॥ श्री०॥५ ॥ इति श्री पद्मप्रभ जिन स्तवनं ॥ १. वच, २. नाठा ३. माला रे. श्रीसुपार्श्वनाथस्तवन मागे महिनां दां० ए देशी ॥ श्री सुपास जिणेसरदेव करुणा कीजे रे । कांई महिर धरीनें स्वामि सवि सुख दीजे रे ॥१२॥ कांई मुझ मन मोह्युं आज प्रभु तुम चरणे रे । कोई अवर न आवें दाय न सूणुं करणे रे ॥२॥ तुं छे त्रिभुवन नाथ साहिब साच रे । कांई सुरमणि छोडी हाथं कुण ले काच रे ||३|| सांभली मुझ अरदास अरज सुणीइं रे । कोई दुःख सह्या अनंत ते सवि भणीइं रे ||४|| लाख चौरासी मांहि नाटक करीया रे | कांई नवनवा जे जे रूप अंगे धरीया रे ||५|| 117 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 March-2002 बीजा दुःख अनंत न जाइ कह्या रे ।। इग बी ती चोरिद्रि मांहे दुःख सह्यां रे ॥६॥ तुमस्युं लागी प्रीति माहरी घणी रे । काई पतिव्रता नारी जिम समरे धणी रे ॥७॥ जेहने जेहस्युं प्रीति ते किम छोडे रे । काइ सरपाले जिम न्याय विछडे मोडे रे ॥८॥ खोटि नहि खजाने ताहरे पासे रे । आपतां गुणज एक श्युं ओछु थासे रे ॥९॥ माहरा मननी वात तुमे सवि जाणों रे । कांई अरज करावो एह हठ किम ताणों रे ॥१०॥ श्रीजिनचन्द्र भगवान सांभलो देवा रे । काई हीर करे अहनिशि तुम पय सेवा रे ॥११॥ इति सुपास जिन स्तवनं ॥ १. नाटिक श्रीचन्द्रप्रभजिनस्तवन बलद भला छे ए देशी ॥ चालो सखी पूजवा रे हीयडे हरख न माय रे सोभागी रे । आठमा चन्द्रप्रभु ध्याइई रे जेहनी दीपे चन्द्र सम काय सोभागी रे 'चन्द्रप्रभु मुझ मन वस्यां रे ॥१॥ रोहिणीपति समरे सदा रे मधुकर समने जाय रे सो० ।। गज समरे रेवा नदी रे वच्छ समरे जिम गाय रे सो० ॥२॥ चं० ।। रामचंद्र जिम सीता मने रे गौरीने महादेव सो० ।। कमला मन गोविंद वस्या रे तिम मोरे मन वसी सेव सो० ॥३।। चं० ॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 अनुसंधान-१९ तारक बिरुद ताहरू रे सफल करो जिनराय सो० । सेवकने जो तारस्यो रे तो जगमा शोभा थाय सो० ॥८॥ चं० ॥ श्रीजिनचन्द्र 'सागरु रे भवभव तुजस्युं राग सो० । होरसागर प्रभु बाहे ग्रही रे सुजस वधारो 'सोभाग सो० ॥ ५ ॥ चं० ।। १. चन्द्र प्रभु मन वस्यारे २. श्री जिनचन्द्र गुण सागरु रे ३. वधारो भाग श्रीसुविधिनाथस्तवन झूमखडानी देशी ॥ श्री सुविधि जिन पूजीई रे पूजतां सुख थाय सोभागी साहिबा । द्रव्य भाव जे साचवे रे तेहने मुगति उपाय सो० ॥१॥ प्रबल पुण्य पसायथी रे पाम्या सुविधि जिणंद सो० । अनंत खजानो प्रभु पासोरे सेवे सुरनर इंद सो० ॥२॥ मोटा जाणी सेवीई रे सुखना कारण ठाम सोग वांछीत रतन आपो सदा रे बलि जाउं ताहरे नाम सो० ॥३॥ उपसमरस वरसो सदा रे समकित केरी टीप सो० । रत्नत्रयी मोती नीपजे रे मुझ मन केरी छीप सो० ॥४॥ ते जिनचंद्र प्रभु दीजई रे सेवकने सुख थाय सो० । हीरसागर प्रभु जगधणी रे करो घणो पसाय सो० ॥५॥ इति श्री सुविधिनाथस्तवनं ॥ १. श्री सुविधि जिन सुविधि पूजीई रे. २. पासे रे. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 श्रीशीतलनाथस्तवन म्हेंतो निजरा रहिस्यांजी ॥ ए देशी || म्हें तो दिलमां धरस्यांजी म्हारा रे साहिबने म्हें तो दिलमां धरस्यांजी । दिलमां धरस्यां अनुभव करस्यां रहस्यां स्वामी हजूर । शिवसुख पामी आनंदरामी लहस्यां सुख भरपूर म्हें० ॥ १॥ वीतरागता मुखने मटके नयणनें लटकें अटक्यु छे मुझ मन्न । मन वच काया दिल थामां धरतां उल्लस्यां छे मुझ तन्न, म्हें० ॥२॥ जोगमुद्रानो लटको चटको केवल ज्ञान स्वरूप । जग उपगारी छौ हितकारी जिनजी छौ अनुप, म्हें० ||३|| गिरुआ सागर गुण विरागर आगर हीरा जाण । आतम ध्यानें प्रभु गुण ज्ञानें होये सकल सुख जाण, म्हें० ||४|| आणंदरूपी सहज सरूपी चिदानंद भगवान । अहनिश ध्याउं आनंद पाउं दिनदिन चढ़तें वान, म्हें० ॥५॥ March-2002 मूरति मनोहारी लागे प्यारी, दीठे उपजे सुख । मैत्री उपजावी रत्नत्रयी भावी, दूरि कर्यां सवि दुःख, म्हें० ॥६॥ 'शीतल जिन दीठें शीतल थाई आतम धर्म प्रकास । श्रीजिनचंद्रसूरिंदनो सेवक हीर करे अरदास, म्हें० ॥७॥ इति श्री शीतलनाथ स्तवनं ॥ १. शीतल दीठे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१९ 121 श्रीश्रेयांसजिनस्तवन बीदलीनी ए देशी ॥ श्री श्रेयांस जिन सुगुण सोभागी, ए तो जोतां भावठि भागी रे । सुणि प्रभु अंतरजामी, तुम्हें लीधो शिवपुरीनो राज, 'तुमे सार्यां पोतानां काज रे ॥ सु० ॥१॥ उपगारी जे कहवाइ 'ते तो सहुने सरिखां थाइ रे सु० । एकने घणु एकने ओछु ते प्रीती जणाइ छोच्छी रे सु० ॥२॥ बिरुद तुम्हारो गरीबनिवाज सेवकनी वधारो लाज रे सु० । तुम्हे महिमासागर ईश तुम्हें दूर करी सवि रीस रे सु० १३।। ओछा रे केरो नेह जेहवो खारीनो दीसे त्रेह रे सु० । चंद चकोरनी प्रीति सुहावे तिम प्रभुजीश्युं गुण गोठ भावेरे सु० ॥८॥ श्रीजिनचंद्र करुणानिधि हवे प्रगटी रिद्धि ने सिद्धि हो सु० । हीरसागर प्रभु गुण गाया मनह मनोरथ पाया हो सु० ॥५॥ इति श्री श्रेयांसनाथ गीतं ॥ १. 'तुमे' नथी २. 'तेतो' नथी ३. चंद्र श्रीवासुपूज्यजिनस्तवन थारा मोहलां उपर मेह ए देशी ॥ 'वसुपूज्यसुत द्यो सेवा प्रभु तुम पयतणी हो लाल प्र० । अवर सेवा नावई दाय के चित्त चाहुं तुम भणी हो लाल चि० ॥ भव अनंत मझार साहिब मुझ मिल्या हो लाल सा० । भवभवना संताप दुःख ते सवि टल्या हो लाल दु० ॥१॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 अनादि निगोद मझार स्वामी हुं वस्यो हो लाल स्वा० । मोह मदिरानी छाक थकी विषये धस्यो हो लाल वि० ॥ पुद्गलतणो स्वभाव ते रमण मुझ मन गमे हो लाल र० । जिहां तिहां इंद्रि स्वाद ते रिदय चित्त तिहां रमे हो लाल रि० ॥२॥ 1 एहवुं मुझ स्वभाव ते साहिब मांहरो हो लाल सा० हिवइ मुझ मलीयो निर्यामक साथ ज ताहरो हो लाल सा० ॥ अनंतचतुष्टय श्रेणि प्रभुजीना गुण घणां हो लाल प्र० । श्रीजिनचंद्र हीर नमें पय तुम तणां हो लाल न० ॥३॥ इति श्री वासुपूज्यजिन स्तवनम् । १. वसुपूज ( श्रीविमलनाथस्तवन ) श्री रामपुरा बाझारमां ए देशी ॥ March-2002 विमल जिणेसर ध्याईई हीयडे हरख भराय मेरे लाल । श्यामा राणीइं जनमीओ इन्द्राणी मिलि गुण गाय मेरे लाल । वि० १ ॥ विमल जनम करवा भणी सेवो विमल जिणंद मे० । मुख सोहे पूनिम चांदलो हरे संकट रयणि दिणंद मे० ॥ वि० २ ॥ विमलज्ञान ते जाणीइ जे सेवे एक चित्त मे० । विमल करें भवि जीवनें जे भगति युगति करे नित्त मे० ॥ वि० ३ || निमित विमलें अनुभव 'सधिरं विमलपदे होइ ध्येय मे० । सुख अनंतु प्रगटे तिहां प्रगटे सर्वज्ञ ज्ञेय मे० ॥ वि ॥४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 अनुसंधान-१९ ध्यातां(ता) ध्यान ने ध्येय एके करी भाव हुई परमाण मे० । जिनचन्द्र पद आपीइ हीरसागर सुख खाण मे० ॥ वि. ५॥ इति विमलनाथ स्तवनं । १. सधे श्रीअनंतनाथस्तवन हुं तो वारि ढोलणि । ए देशी ॥ श्रीअनंत जिन तारयो हो राज अनंत चतुष्टय गेह वारि म्हारा साहिबा । चौतीश अतिशये राजतो हो राज वाणी वरसे सुधारस मेह वा० ॥१॥ भविजन-मोर क्रीडा करे हो राज वरसें भगतिने मनखेत वा० । समकित अंकूरा उगीया हो राज श्रद्धा प्रतीत समेत वा० ॥२॥ व्रत फूल प्रगट्या सदा हो राज फल्या शिवफल सुख वा० । आतम रिद्धि प्रगट करी हो राज भांगी अनादिनी भूख वा० ॥३॥ प्रभुनिमित्त लही करी हो राज जे करसे उपादान सुद्ध वा० । प्रभुसेवा मुझने गमे हो राज जेहवा साकर दुद्ध वा० ॥४॥ अनंतजिन मुझ आपीइ हो राज जिनचंद्र सुख नितमेव वा० । हीरसागर तुम पयतणी हो राज करे अहोनिशि तुम सेव वा० ॥८॥ इति श्री अनंतजिन स्तवनं ॥ श्रीधर्मनाथस्तवन चतुर सनेही मोहना ए देशी ॥ श्री धरमनाथ स्वामी सुणो तु मे धर्म प्रगट को स्वामी रे । आतम धरमनो अरथी छु | कहिदुं शिवगामी रे ॥ धर्म० ॥१॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 March-2002 काल अनंते ओलख्यो धर्मनाथ जगनाथो रे । तुम छोडी बीजा किम नमुं कुण ले बाउल बाथो रे ॥ धर्म० ॥२॥ दातार जाणी करी आव्यो तुम चरणे सांई रे । आपq होय ते आपीईं विमासी रह्या काई रे ॥ धर्म० ॥३॥ जो पोतानो त्रेवडो रस्युं जिनजी विचारो रे ।। एकपखिणी प्रीतडी छै प्रभु निरधारो रे ॥ धर्म० ॥४|| शिवसुख जिनचंद्र आपीई उपशम रसना कंद रे । हीरसागर प्रभु सुख घणां दीठे परमाणंद रे ॥ धर्मः ।।५।। इति श्री धर्मनाथ स्तवनं ॥ १. 'तुमे' नथी. श्रीशांतिजिनस्तवन जीहोनी ए देशी। जीहो शांति जिणेसर प्रणमीई लाला शांति जिणंद सुहाय जोहो । विश्वसेन नरपति चंदलो लाला अचिरानंद लागु पाय जोहो ॥१॥ जिणेसर सांभलि मुझ अरदास । आंकणी । जीहो चक्री पंचमो जाणीइं लाला सोलमा एह जिणंद जीहो । धरम चक्री तुमे वडा लाला जीहो दीपे जेम दिणंद जि० ॥२॥ जोहो अभयदान देइ करी लाला बांध्यु श्री जिननाम जीहो । जीहो सकल जीव ने निरभय कर्यां लाला पाम्या पंचम गति ठाम जि० ॥३॥ जीहो प्रभु ताहरी भगति सदा लाला महिर करो महाराज जीहो । जीहो सहिजे सेवक सुख करो लाला आपो अविचल राज जि० ॥४॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान-१९ 125 जीहो मांगुं छु प्रभु एटलं लाला शाश्वत पद मुझ ठाम । जीहो जिनचंद्र प्रभु जाणज्यो लाला हीर जपै तुझ नाम जि० ।।५।। इति श्री शांतिनाथ स्तवनं ॥ श्रीकुंथुजिनस्तवन कपूर होवें अति उजलु रे ए देशी ॥ गुण गिरुआ प्रभु जगधणी रे अंतरजामी ईश रे । कुंथु भवोदधि तारवा रे कां न करो बगसीसरे । स्वामी सेवकनें तार ॥१॥ कोडि पेर करतां छतां रे वीनती विविध बणाय । जस कीरति जपतां सदा रे नावें तुमचे दाय रे स्वा० ॥२॥ जो जाणो तो जाणज्यो रे अंतरगतिनी पीड । धीर विना कुण 'हरी शके रे भवभय केरी भीड रे स्वा० ॥३॥ तुझ विना कोय न तारसें रे जाणो छो प्रभु निरधार । तो इणि हवें अवसर मल्यां रे श्युं करो देव विचार रे स्वा० ॥४॥ न होवे को विधि अम थकी रे पण तुझ नामे निस्तार | पथ्थर लोहनावें पड्या रे पामे सायर पार रे स्वा० ॥५॥ जल चढते पोयण वधे रे एह यथारथ न्याय । भगत सधे तुम हित वध्या रे साचे मन जिनराय स्वा० ॥६| श्रीजिनचंद्र साहिब तणो रे पार न पावे कोय । हीरसागर समोवड हुवे रे जो उज्जवल मन होय ॥७॥ इति श्रीकुंथुनाथ स्तवनम् ॥ १. तुं २. ही ३. विण Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 March-2002 श्रीअरनाथस्तवन अरज सुणो सूडार रा० ए देशी ॥ अरज अरज सुणो अरनाथजी होजी गुणधणी गिरुआ जगनाथ । अहनिशि अहनिशि उभा उलगें होजी करुणाकर स्वामी अनाथ अर० ॥१॥ एक एक तारी छै प्रभु उपरे होजी जिम मोरा मन मेह । चातुक चातुक पीयु पीयु करे होजी तिम समरूं मन गेह ॥अर० ॥२॥ प्रभुजी प्रभुजी तुमे तो जइ दूरि वस्या होजी शी पेर करीइ स्वाम । ध्यान ध्यान आकर्षणे प्रभुजी आणीया होजी मुझ मंदिर ठाम अर० ॥३|| वासो वासो वस्या मुझ मन्त्रमा होजी स्वामी जिनिं रहवा जोग । रत्न रत्नत्रयीना सुख दीजीइ होजी मिलीया अविहड भोग अर०॥४॥ श्रीजिन श्रीजिनचंद्र लहिर करो जगधणी होजी जीनजो करो रे पसाय । हीर हीरसागर जिनगुण स्तवे होजी नमे लळीलळी पाय अर० ॥५॥ इति श्री अरनाथ स्तवनम् ॥ १. मुझ मन मंदिर श्रीमल्लिनाथस्तवन हमीरानी देशी ॥ साहिब सेवा साधतां जो नसरे कोई काम सनेही । अंतरजामी अहनिशे कुण जपशें तुम नाम सनेही ॥१॥ मल्लि जिणेसर सेवीई, ए आंकणी । निसवारथ कोई केहने चरणे न नामे सीस स० । सेवक तोहिज सेवसें जो पहुंचे मननी जगीस स० ॥२॥ मल्लि०|| Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 अनुसंधान-१९ बेली न होवे दुःखमां जो न करे सहाय स० । इच्छित सुख आपे नहिं स्यांनो साहिब थाय स० ॥३॥ मल्लि० ॥ अवगुण गुण करी लेखवें विरचे न पडिया वंक स० । साचा साहिब ते सहि तजीयें तेहनो अंक स० ॥४|| मल्लि० ॥ श्रीजिनचंद्र बहु गुणनीलो मल्लिनाथ अरिहंत स० । हीरसागर बिरुद निवाजीयें वात सकलनो तंत स० ॥५॥ मल्लि० ॥ इति श्री मल्लिनाथ स्तवनम् ॥ श्री मुनिसुव्रतजिनस्तवन आवो रे स्वामीजी ए देशी ॥ श्रीमुनिसुव्रत स्वामीजी मया करो जगधणी रे । ओलगडी मानो दासनी कांई निजर करो मो भणी रे ।श्री० ॥१॥ हुँ छु किंकर स्वामी तुमारो दासने दीजे दिलासो रे । सेवक नयण निहालीइ हुं खिण न तनुं तुम पासो रे ।। श्री० ॥२॥ रांक हाथे जे रतन आव्यु किम मेलुं महाराजो रे । कामकुंभ चिंतामणी सुरतरु फलियो मुझ घर आजो रे ।श्री० ॥३॥ अश्व उपरि जिम दया कीधी भरुअच्च नयर मझार रे । अनुचरने निज लहरें करी ऊतारो भवपार रे श्री० ॥४॥ आज महोदय माहरो मुझ मलीया त्रिभुवनस्वामी रे । श्रीजिनचन्द्र सुख सागर हीर नमें शीर नामी रे ।श्री० ॥५॥ इति श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवनम् ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 March-2002 श्रीनमिजिनस्तवन श्री ऋषभानन गुणनीलो । श्रीनभिप्रभुजीने सेवतां होये सुखनो पूरण गेहरे जिणंद । चरणकमलनी सेवनां करतां वधई गुणनेह रे जि० ||श्री० ॥१॥ वप्राराणीनो नंदलो जेहने सेवइ चोसठि इंद्र रे । जि० ॥ त्रिगडे बेठां सोहिई प्रतिबुझवई सुरनरवृंद रे ||जि०॥ श्री० ॥२॥ तुमे सारथी शिवपुरतणां समकित परम आधार रे जि० । ते समकित मुझ दीजई आतम हित सुखकार रे जि० ।। श्री० ॥३॥ त्रिण तत्त्व मुझ दीजीइं करो करुणा हिवई सुखदाय रे जि० । दायक नायक उपमा तुमारी तुम भगते सुख थाय रे जि० ॥श्री० ॥४॥ श्रीजिनचंद्र मया करो दोलति दाई सुखकंद रे जि० । हीरसागर सुख संपदा ए तो प्रणमें परमाणंद रे जि० ।श्री०॥५॥ इति श्री नमिनाथ स्तवनम् ॥ १. 'तुमारी' नथी. श्रीनेमिनाथस्तवन नरपती रे सीख दीओ अमने हवै ए देशी ॥ श्री नेमजी रथ फेरी पाछा किम वल्यारे साहिबा, नाणी प्रीत लगार । वयण मानो सयण वारु । नेमजी गोखे बेठी पीयुने वीनवे रे सा० किम छोडो राजुल नार । व० ।श्री०॥१॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान - १९ पशुआं पोकार सुणी करी रे सा० जाओ छो निरधार व० । तुम्हनई तो एहवुं नवि घटे रे सा० करी करी पीओ मुझ सार व० ॥ श्री० ॥२॥ न मिल्यानो धोखो नहि रे सा० मिलीनई जाओ छोडी व० । पहिला तो एहवुं जाण्युं हतुं रे सा० पुंहचसे मनना कोडी व० || श्री० || ३ || नवभव केरी प्रीतडी रे सा० छटकीनिं द्यो छो छेह व० । कीडी उपर कटकी कांई करी रे सा० तुमने अवर मिली कुण तेह व० 1157011811 भोजन पीरसी थाल ताणी लीइं रे सा० सींचीने कुण खींचे मूल व० । पुरुष हीयानां कठोरडा रे सा० ए ऊखाणो साचो थयो मूल व० ॥ श्री ॥५॥ पहिलई तो नेह दिखाडिने रे सा० हवइ वाल्हा छोडो छो गेह व० । करुणासागर किरपा करो रे सा० पुंहती गढ गिरनार ससनेह व० ॥ श्री० ६ ॥ संजम लइ पीयु पहिली गई रे सा० शिवपुर उत्तम ठान व० । श्रीजिनचंद्रसूरितणो रे सा० हीर करे गुणगान' व० | श्री० ||७|| इति श्री नेमिनाथजिन स्तवनं ॥ १. मली २. 'ए' नथी ३. ठाम ४. गुणग्राम 129 श्रीपार्श्वनाथस्तवन सांभळज्यो हवें कर्मविपाक ए देशी ॥ श्रीपासजिणेसर प्रभुने पूजीई रे आणी हरख अपार । पूजतां ए जिनपूजन कह्या रे 'आणे भवनें पार | श्री० ॥ १ ॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 March-2002 द्रव्य भाव मली एकतानस्युं रे आराहे पूजन ठाम ।। अहनिशि प्रभुनी प्रभुता लीनो रहे रे सुरनरमें चढती मांम ॥श्री०॥२।। कमठासुर हठ दुरई कर्यों रे करुणा कीधी खास । प्रदीप सम केवल झलहलई रे को अनाण तिमिर नास ॥श्री०॥३॥ त्रिगडें बेठा श्री जिन उपदिशे रे लोकलोक स्वरूप । 'लोकमार्गनि अवलोकतां रे अरूपी अक्षय रूप ॥श्री०॥४॥ महानंद मोहलमा राजता रे सुख अनंतनो वास । ते जिनचन्द्र प्रभु हृदयई धरे रे प्रगटई हीर जसवास ||श्री०॥५॥ इति श्री पार्श्व जिन स्तवनम् ॥ १. आणंद २. तत्त्व मार्गनि श्रीमहावीरस्वामिस्तवन प्रथम गोवालिया त० ए देशी ॥ त्रिभुवन केरो साहिबा जी वीरजी परम दयाल । शासन शोभा वधारतो .जी करी करुणा मयाल रे जिनजी रे ॥१॥ दासनी करो रे सार जि० ॥ सिद्धारथकुल-नभोमणि जी त्रिशला मात मल्हार । क्षत्रीयकुंडे जनमीया जी चौद स्वप्न लही सार रे जि० ॥२॥ संवच्छरी दान देई करी जी राज-रमणीनें छोड । संजमनारी परणीया जी पुंहतां मननां कोड रे जि० ॥३॥ घोर परिसहां जीतीया जी तोड्या कर्मना मोड ।। घातिकर्म दूरि कर्यां जी पोहता पामी सुर नमें कोड रे जि० ॥४॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 131 अनुसंधान-१९ समवसरणमें राजता जी देतां भवि उपदेश / रत्नत्रयी वरसें सदा जी अनुपम सुंदर वेसरे जि० // 5 // समकित दान आपीयां जी दलीद्र नसाड्यां दूर / ते दान लेई सुखी' थयां जी आनंद उपजई पूर रे जि० // 6 // श्रीजिनचंद्र प्रभु माहरो जी जीनजी परम आधार | वो मय(म)गलमालरे जीनजी, अने वरत्यो जयजयकार रे जीनजी // 7 // इतिश्री महावीर जिन स्तवनम् // इति श्री चौवीशी स्तवन सम्पूर्ण : // श्रीरस्तु / कल्याणमस्तु / श्रीकारी हुई // शुभ छई // 1. सुखी या