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प्रास्ताविक
१ स्तव परिक्षा
२०३ गाथामयी स्तव परिज्ञा प्रन्य श्री हरिभद्रसूरिवर विरचित पत्र वस्तु महाग्रन्थ में गाथा १९१० से १३१२ माथा तक में है। उस पर 'पञ्च वस्तु पर की श्री हरीभद्रवरिश्वरजीकी टीका भी है । पक्ष वस्तु ग्रन्थ आगमोदय समिति से छपा है।
उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजश्रीने आपना प्रतिमा शतक नामक ग्रन्थ की ६७ वी गाथा में यह स्तव परिज्ञा ग्रन्थ पूरेपूरा रख दीया है, और उसके पर अपनी अवचूरिका भी रची है।
जो यहां छपी गई है, और साथ में जो पश्च वस्तु प्रन्थ गत पाठ भेद है, वे [ ] कांस में बताये गये है। श्री उपाध्यायजी महाराजका कहना हैकि यह ग्रन्थ-दृष्टिवाद आदि से उद्धृत किया गया है।
. " इयं खल समुद्धृता सरस-इटिवादादितः "
इस ग्रन्थ की रचना दशपूर्वधर युमप्रधान आचार्यश्री बजस्वामिके बाद बुई मालूम पडती है। किन्तु कब हुई ? किन्हीं ने की ? पता नहिं । इसकी बहुत सी गाथायें पच्चाशक आदि ग्रन्थ में पाई जाती है । २ स्तव परिज्ञा का संबन्ध . __सर्व संग त्यागी पूज्य श्री मूनिमहात्माओं दिनभर अपने धर्मानुष्ठान द्वारा धर्मध्यान में रहते हुए भी बिच में रहता अवकाश में सुस्वाध्याय करने का शास्त्रानुसार रहता है। इसके अनुसंधान में - सत् शास्त्रों का स्वाध्याय करने के लिए ज्ञान परिज्ञा
और स्तव परिझा आदि सूचित किये गये हैं। स्तव परिज्ञा ग्रन्थ पूरेपूरा रख दिया गया है।
स्तव परिज्ञा में - द्रव्य स्तव और मावस्तव के स्वरूप के विचार है। ३ चार अनुयोग
संख्यातीत खुबीओं से भरे जैनधर्म में-जैन शासन में - जैन दर्शन में - चार अनुयोगरूपतया शास्त्र निरूपण की व्यवस्था की गई है।