Book Title: Sramana 2008 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ ८ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ क्रम में आगे शान्तरक्षित और कमलशील के नाम आते है । शान्तरक्षित का आठवीं शती का तत्त्वसंग्रह बौद्धन्याय की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह में अविद्धकर्ण शंकरस्वामी, भावीविक्त तथा जैन दार्शनिक सुमति और पात्रस्वामी के मन्तव्यों को उपस्थापित कर उनका खण्डन किया है। इसी प्रकार शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह पर कमलशील की पंजिका में भी जैन दार्शनिक सुमति एवं पात्रस्वामी के मतों की समीक्षा मिलती है। दुर्वेकमिश्र का बौद्ध न्यायशास्त्र के रचयिताओं में अन्तिम नाम आता है। हेतुबिन्दुटीकालोक, धर्मोत्तरप्रदीप और न्यायबिन्दु टीका इनका प्रमुख ग्रंथ है। हेतुबिन्दुटीकालोक में दुर्वेकमिश्र ने जैन मन्तव्यों की समीक्षा की है। इस प्रकार ईसा की तीसरी - चौथी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध दर्शन एवं न्याय के अनेक ग्रंथों की रचना हुई, इनमें जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने भी बौद्धेतर दार्शनिकों के मन्तव्यों की समीक्षा की, वहीं बौद्धेतर दार्शनिकों ने इन बौद्ध आचार्यों द्वारा रचित ग्रंथों को आधार बनाकर बौद्ध मन्तव्यों की समीक्षा की है। इस प्रकार लगभग ईसा की बारहवीं शताब्दी तक भारतीय दार्शनिक एक- दूसरे की परम्परा का सम्यक् रूप से अध्ययन करते रहे और उन्हें अपनी समीक्षा का विषय बनाते रहे। इस काल के बौद्ध एवं बौद्धेतर दर्शन ग्रंथों के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस काल तक अपने से भिन्न परम्परा के ग्रंथों के अध्ययन एवं समीक्षा की एक जीवन्त परम्परा थी, जो परवर्तीकाल में लुप्त हो गई । जैन विचारकों की दृष्टि में बौद्ध धर्म-दर्शन जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि जैन ग्रन्थों में बौद्ध धर्म एवं दर्शन सम्बन्धी उल्लेख आगम युग से ही मिलने लगते हैं । सर्वप्रथम इसिभासियाई (ऋषिभाषित) में सारिपुत्त, महाकश्यप और वज्जीपुत्त के उपदेशों का संकलन किया गया है, इसमें बौद्ध सन्ततिवाद, स्कन्धवाद आदि का स्पष्ट उल्लेख है। इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांगसूत्र में बौद्धों के पंचस्कन्धवाद की समीक्षा भी है। इसके पश्चात् सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क में एवं कुछ द्वात्रिंशिकाओं मेंयथा बारहवीं द्वात्रिंशिका में न्याय दर्शन, तेरहवीं में सांख्य दर्शन, चौदहवीं में वैशेषिक दर्शन और पन्द्रहवीं द्वात्रिंशिका में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद आदि पर चुटीले व्यंग्य कसे गये हैं, किन्तु वहीं सद्धिसेन ने सन्मतितर्कप्रकरण में बौद्ध क्षणिकवाद को ऋजुसूत्रनय के आधार पर समीचीन भी माना है। इसके पश्चात् मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र और उसकी सिंहसूरि की टीका में भी बौद्ध मन्तव्यों की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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