Book Title: Sramana 2008 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ ६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८ प्रमाण-व्यवस्था में किसी सीमा तक न्याय दर्शन से निकटता रखते हैं। यद्यपि इनकी व्याख्याओं को लेकर इनका न्याय दर्शन से स्पष्ट मतभेद भी देखा जा सकता है। असंग एवं बसुबन्धु (ईसा की पाँचवीं शताब्दी) के पश्चात् बौद्ध परम्परा में दिङ्नाग का स्थान आता है। दिङ्नाग के पूर्व बौद्ध न्यायशास्त्र पर आंशिक रूप से गौतम के न्यायसूत्र का प्रभाव देखा जाता है, किन्तु दिङ्नाग ने बौद्ध न्याय को एक नवीन दिशा दी। परवर्ती काल में नैयायिकों, मीमांसकों और जैन आचार्यों ने दिङ्नाग के मन्तव्यों को ही अपनी आलोचना का आधार बनाया। न्याय दर्शन में उद्योतकर ने, मीमांसा दर्शन में कुमारिलभट्ट एवं प्रभाकर ने और जैन दर्शन में द्वादशारनयचक्र के कर्ता मल्लवादी, आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र आदि ने दिङ्नाग का खण्डन किया है। दिङ्नाग की प्रमुख रचनाओं में आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, हेतुचक्र, न्यायमुख, हेतुमुखप्रमाणसमुच्चय एवं उसकी वृत्ति आदि प्रमुख हैं। ज्ञातव्य है कि दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय का खण्डन करने के लिये उद्योतकर ने न्यायवार्तिक एवं कुमारलि भट्ट ने श्लोकवार्तिक की रचना की थी। जैन दार्शनिक मल्लवादी ने भी द्वादशारनयचक्र की न्यायागमानुसारिणी टीका में प्रमाणसमुच्चय की अवधारणाओं का खण्डन किया। इसके अतिरिक्त जैन ग्रंथ तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, सन्मतिप्रकरणटीका आदि में भी प्रमाणसमुच्चय की स्थापनाओं की समीक्षा उपलब्ध होती है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग के काल से भारतीय दार्शनिक चिन्तन में विशेष रूप से प्रमाण सम्बन्धी विवेचनाओं के खण्डन-मण्डन को पर्याप्त महत्त्व मिला। कुछ ऐसा भी हुआ कि अन्य परम्परा के लोगों ने अपने से भिन्न परम्परा के ग्रन्थों पर टीकाएँ भी लिखी। दिङ्नाग का 'न्यायप्रवेश' बौद्धन्याय का एक प्रारम्भिक ग्रंथ है, किन्तु यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि इस ग्रंथ पर जैनाचार्य हरिभद्रसूरि ने न्यायप्रवेश-वृत्ति और पार्श्वदेवगणि ने पंजिका लिखी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि न्यायप्रवेश मूलतः प्रमाण-व्यवस्था के सन्दर्भ में केवल बौद्ध मन्तव्यों को प्रस्तुत करता है। इस पर हरिभद्रसूरि की टीका विशेष रूप से इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने इस सम्पूर्ण टीका में कहीं भी जैन मन्तव्यों को हावी नहीं होने दिया है। संभवतः ऐसा उदारवादी दृष्टिकोण हरिभद्र जैसे समदर्शी आचार्य का ही हो सकता है। न्यायप्रवेश की वृत्ति में हरिभद्र ने न्यायसूत्र व उसके भाष्यकार वात्स्यायन वार्तिककार उद्योतकर, तात्पर्यटीकाकार वाचस्पति मिश्र और तात्पर्यटीका पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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