Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 8
________________ श्रमण/जनवरी-मार्च १९९९ तनाव, नैराश्य, संभ्रम, भय, अरक्षा, आदि नामों से पुकारा गया है।" मनोवैज्ञानिक इन अनुभूतियों को प्रायः पूरी तरह वैयक्तिक मानते हैं। हम यदि सूक्ष्म विवेचना करें तो ये सभी भावनाएँ हमें भारतीय दार्शनिक साहित्य में तनाव के अर्थ में मिल सकती हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में हम 'हिंसा' और 'भय' इन दो अवधारणाओं का अध्ययन करेंगे। हिंसा आचारांग में तनाव का प्रधान कारक (स्ट्रेसर ) हिंसा को माना गया है। हिंसा वह उद्दीपक है जो तनाव को उद्दीप्त करता है। इसके अनेक रूप और प्रकार हो सकते हैं। छेदन-भेदन से लेकर प्राण- वियोजन तक (छेत्ता, भेत्ता, हंता) सभी हिंसा के रूप हैं जिनसे प्राणियों को 'त्रास' (तास) पहुँचता है। हिंसा यदि तनाव उद्दीपक है तो त्रास उसकी प्रतिक्रियात्मक अनुभूति है। वे लोग जो इस तरह का त्रास देते हैं 'आतुर' कहे गए हैं। आतुर वह व्यक्ति है जो हिंसा से दुःखी और व्यग्र है । अपनी बीमार मानसिकता से ग्रसित ऐसे व्यक्ति प्राणियों को स्थान-स्थान पर परिताप देते हैं- 'तत्य तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति । यदि हम आधुनिक शब्दावली में कहें तो आचारांग के अनुसार तनाव - युक्त पुरुष ही 'आतुर' है, प्राणियों को ( तनाव की प्रतिक्रिया के रूप में) 'परिताप' देता है। पुरुष की आतुरता जहाँ तनाव कारक'स्ट्रेसर' है, वहीं 'परिताप' प्रतिक्रियात्मक अनुभूति है जिसे तनाव के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। उद्दीपक के रूप में 'आतुर प्राणी' और प्रतिक्रिया के. रूप में 'परिताप'- ये हिंसा के ही दो रूप हैं। हिंसा इस प्रकार उद्दीपक भी है और प्रतिक्रिया भी । यही तनाव है। हिंसा, हिंसक को 'आतुर' ही नहीं बनाती वह उसके आचरण को अहितकर और नासमझ (अबोध) बना देती है- 'तं से अहियाए, तं से अबोहिए'। 'अहित' और 'अबोध' हिंसा रूपी तनाव की व्यवहारगत परिणतियाँ हैं। जहाँ तक हिंसा द्वारा निर्मित तनाव का अनुभूतिपरक पक्ष है उसे कई तरह से वर्णित किया गया है। 'त्रास' और 'परिताप' की अवधारणाएँ तो प्रस्तुत की ही गई हैं, आतंक भी हिंसात्मक तनाव की प्रतिक्रियात्मक अनुभूति है। आचारांग हमें हिंसा में 'अहित' के अतिरिक्त जो 'आतंक' निहित है उसे देखने के लिए भी आमंत्रित करता है- 'आतंक दंसी अहियं तिनिच्या १" इसी आतंक को 'महाभय' भी कहा गया है। कहा गया है कि हिंसा सभी प्राणियों के लिए 'अशांति, अस्वाद्य, महाभयंकर और दुखद' होती है- 'अस्सायं, अपरिणिव्वाणं, महाभयं, दुक्खं ति बेमि' ९९ । १० यहाँ यह द्रष्टव्य है कि अहित, अबोधि, परिताप, आतंक, महाभय,

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