Book Title: Sramana 1999 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 6
________________ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ सांख्य-दर्शन की भाँति जैन दर्शन में भी दुःख को लगभग तनाव की तरह ही प्रस्तुत किया गया है। यहाँ कहा गया है कि अनिष्ट के समागम और इष्ट के वियोग का नाम दु:ख है- “अणिट्ठस्थ समागमो इट्ठत्थ वियोगो च दु:खणाम'' (धवला)। शारीरिक, मानसिक आदि भेद से दुःख कई प्रकार का होता है। प्राय: शारीरिक (रोगादि से उत्पन्न) दु:ख को ही दुःख माना जाता है, पर वास्तव में यह सबसे तुच्छ दु:ख है। उससे ऊपर मानसिक (इष्ट का वियोग) और सबसे बड़ा स्वाभाविक ('सहज'- क्षधादि से उत्पन्न होने वाला दुःख) होता है जो व्याकुलता रूप है। दु:ख का व्याकुलता-रूप होना ही वस्तुत: दु:ख को तनाव के समानार्थक बनाता है। जैन दर्शन में एक स्थान पर दु:ख के चार, बल्कि कहना चाहिए, पाँच प्रकार बताए गये हैं। इनमें से प्रथम प्रकार का दु:ख 'असुर कुमारों द्वारा दिया गया दु:ख है। हम इसे अनदेखा कर सकते हैं। किंतु तनाव की दृष्टि से शेष चार प्रकार महत्त्वपूर्ण हैं। ये हैं क्रमश: (१) शारीरिक-भौतिक दुःख-जो राग, क्षुधा आदि से तनाव उत्पन्न करते हैं। (२) मानसिक दुःख-जो कामनाओं की असंतुष्टि से व्याकुलता उत्पन्न करते हैं। (३) क्षेत्रीय दुःख-जो परिवेश सम्बन्धी कहे जा सकते हैं- जैसे शीतवायु आदि से उत्पन्न कष्ट। इन्हें 'आकस्मिक', 'आगंतुक' या 'नैमित्तिक' भी कहीं-कहीं कहा गया है। (४) अन्योन्य दुःख-जो अंतर-वैयक्तिक और अंतर-सामाजिक सम्बन्धों से उत्पन्न हैं। जैन दर्शन अपने उपरोक्त दु:ख के वर्गीकरण में 'क्षेत्रीय' और 'अन्योन्य' दुःखों को समाविष्ट कर तनाव के परिवेशीय और सामाजिक पहलुओं पर विशेष बल देता है। यहाँ यह स्मरणीय है कि तनाव के आधुनिक व्याख्याकार भी तनाव की शारीरिक-दुःख रोग-क्षुधादि से उत्पत्र क्षेत्रीय/आकस्मिक अथवा आगंतुक नैमित्तिक/परिवेश संबंधी दु:ख दुःख 25 से उत्पन्न अन्योन्य परस्पर-सम्बन्धों । अनिष्ट के संयोग और इष्ट के वियोग से उत्पत्र मानसिक दुःख व्याख्या में क्षेत्रीय/सामाजिक दृष्टि को ही अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। ___ चित्र- (३) जैन दर्शन में दुःख

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