Book Title: Sramana 1999 01 Author(s): Shivprasad Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 7
________________ भारतीय दर्शन में तनाव - अवधारणा के विविध रूप चरक संहिता में तनाव को 'दोष' के रूप में समझा गया है। यहाँ वात, पित्त और कफ- ये तीन प्रकार के दोष बताए गए हैं। ये दोष तभी उत्पन्न होते हैं जब वातादि का उचित समन्वय नहीं रह पाता और यह तनाव की स्थिति व्यक्ति के स्वास्थ्य पर विपरीत बोझ दबाव डालती है। इस प्रकार ये दोष तनाव की ओर ही संकेत करते हैं। तनाव का व्यक्ति के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ता - यह तथ्य आज पूर्णतः स्थापित हो चुका है। यदि यह तनाव शारीरिक- भौतिक है (जैसे, वात, पित्त, कफ के संतुलन में कमी आ जाना) तो भी और यह यदि अंतर - वैयक्तिक है, अथवा आध्यात्मिक है तो भी। इसी प्रकार जहाँ आध्यात्मिक तनाव घृणा, दुःख, भय, ईष्या और अवसाद आदि की भावानात्मक प्रतिक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं, वहीं आधिभौतिक तनाव अंतर्वैयक्तिक संघर्ष, स्पर्धा और आक्रमण जैसी व्यवहारगत प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न कर सकते हैं। तनाव वस्तुत: (१) उद्दीपक (२) प्रतिक्रिया और (३) अंतर्क्रिया ये तीन रूपों में देखा जा सकता है।" उद्दीपक के रूप में तनाव मनोवैज्ञानिक / व्यवहारगत परिवर्तन उत्पन्न करता है; प्रतिक्रिया के रूप में वह भावनात्मक अनुभूति और आचरण संबंधी परिवर्तनों की ओर संकेत करता है तथा अंतर्क्रिया के रूप में वह दो या दो से अधिक भाव/व्यक्ति/समाज आदि के परस्पर असंतुलित संबंधों की ओर इंगित करता है। तनाव का यह विश्लेषण बेशक आधुनिक है, लेकिन तनाव के ये सभी रूप हमें उद्दीपक तनाव प्रतिक्रिया प्राचीन भारतीय साहित्य में बखूबी देखने को मिल सकते हैं। चित्र (४) तनाव के रूप जैसा कि चित्र में संकेत किया गया है। अंतर्क्रिया (अन्योन्य संबन्ध) के रूप में तनाव, उद्दीपक (स्टिमुलस') भी हो सकता है और प्रतिक्रिया भी । इसी प्रकार उद्दीपक के रूप में तनाव प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकता है और प्रतिक्रिया एक नया उद्दीपक भी बन सकती है। उन भावनात्मक प्रतिक्रियाओं, जिन्हें सामान्यतः तनाव (स्ट्रेस) कहा गया है, का वर्णन कई प्रकार से किया गया है। इन्हें संशय, हताशा, संत्रास, चिन्ता, ४Page Navigation
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