Book Title: Sirival Kaha
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Sisodara Shwe Mu Pu Jain Sangh
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श्री गौतमस्वामिने नमः ॥ अहम् ॥॥ श्री सिद्धचक्राय नमः॥
श्रीरत्नशेखरसरिवरविरचिता श्रीक्षमाकल्याणकवाचकविरचितावचूर्णिसमलङ्कृता
सिरिसिरिवालकहा ध्यात्वा नवपदी भक्त्या, श्रीश्रीपालमहीभुजः ।
चरित्रं कीर्तयिष्यामि, रम्यं संस्कृतभाषया ॥१॥ अरिहाइनवपयाई, झाइत्ता हिअयकमलमझंमि । सिरिसिद्धचक्कमाहप्पमुत्तमं किंपि जंपेमि ॥१॥ अस्थित्थ जंबुदीवे, दाहिणभरहद्धमज्झिमे खंडे । बहुधणधन्नसमिद्धो, मगहादेसो जयपसिद्धो ॥२॥ जत्थुष्पन्नं सिरिवीरनाहतित्थं जयंमि वित्थरियं । तं देसं सविसेस, तित्थं भासंति गीयत्था ॥३॥ अर्हदादिनवपदानि हृदयकमलमध्ये ध्यात्वा उत्तमं श्रीसिद्धचक्रस्य-यन्त्रराजस्य माहात्म्यं किमपि जल्पामि-कथयामि ॥१॥ अस्मिन् जम्बूद्वीपे दक्षिणभरतार्द्धस्य मध्यमे खण्डे बहुधनधान्यसमृद्धो जगत्प्रसिद्धो मगधाख्यो देशोऽस्ति ॥२॥ यत्र मगधाख्ये देशे उत्पन्नं श्रीवीरनाथस्य तीर्थं जगति विस्तृत-विस्तारं प्राप्तम्, तं देशं गीतार्थाः सविशेषं तीर्थं भाषन्ते-वदन्ति ॥३॥
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