Book Title: Sirival Kaha
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Sisodara Shwe Mu Pu Jain Sangh
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तत्थवि भावेण विणा, दाणं न हु सिद्धिसाहणं होई। सीलंपि भाववियलं, विहलं चिय होइ लोगंमि ॥१९॥ भावं विणा तवोवि हु, भवोहवित्थारकारणं चेव । तम्हा नियभावुच्चिय,सुविसुद्धो होइ कायब्बो ॥२०॥ भावोवि मणोविसओ, मणं च अइदुज्जयं निरालंबं । तो तस्स नियमणत्थं, कहियं सालंबणं झाणं ॥२१॥ आलंबणाणि जइवि हु, बहुप्पयाराणि संति सत्थेसु । तहवि हु नवपयझाणं, सुपहाणं बिंति जगगुरुणो ॥२२॥ अरिहं सिद्धायरिया, उज्झाया साहुणो अ सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं मुणेयव्वं ॥२३॥
तत्रापि भावेन विना दानं सिद्धिसाधकं मोक्षदायकं न भवति, हुः-निश्चये, शीलमपि भावविकलं-भावरहितं सत् लोके विफलं-निष्फलमेव भवति, चियेत्यवधारणे ॥१९॥ भावं विना तपोऽपि भवौघस्य -भवसमूहस्य भवप्रवाहस्य वा यो विस्तार तस्य कारणमेवास्ति, एतावता भवभ्रमणकारणं न तु मुक्तिकारणमित्यर्थः, तस्मात् कारणात् निजभाव एव सुतरां विशुद्धोनिर्मलः कर्तव्यो भवति, कर्तुं योग्योऽस्ति ॥२०॥ भावोऽपि मनोविषयो-मनोगोचरोऽस्ति, मनश्च निरालम्बम्-आलम्बनरहितं सत् अतिदुर्जयम् - अतिशयेन दुर्जयं विद्यते, ततस्तस्मात् कारणात् तस्य मनसो नियमनार्थ-वशीकरणार्थं सालम्बनम्आलम्बनसहितं ध्यानं कथितम् ॥२१॥यद्यपिआलम्बनानि शास्त्रेषु बहुप्रकाराणि सन्ति, तथापिहुइति निश्चयेन, जगद्गुरवःश्रीजिनेन्द्रा नवपदध्यानं सुतरां प्रधानमालम्बनं ब्रुवन्ति ॥ २२ ॥ अथ नवपदनामान्याह - अर्हन्तः १ सिद्धा २ आचार्या ३ उपाध्यायाः ४ साधवश्च ५ सम्यक्त्वं ६ ज्ञानं ७ चारित्रं ८ तपः ९ इति पदनवकं ज्ञातव्यम् ॥२३॥
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