Book Title: Sirival Kaha
Author(s): Rajshekharsuri
Publisher: Sisodara Shwe Mu Pu Jain Sangh
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तत्थरिहंतेऽद्वारसदोसविमुक्के विसुद्धनाणमए । पयडियतत्ते नयसुरराये झाएह निच्चंपि ॥२४॥ पनरसभेयपसिद्धे, सिद्धे घणकम्मबंधणविमुक्के। सिद्धाणंतचउक्के, झायह तम्मयमणा सययं ॥२५॥ पंचायारपवित्ते, विसुद्धसिद्धंतदेसणुज्जुत्ते । परउवयारिक्कपरे, निच्चं झाएह सूरिवरे ॥२६॥
तत्र-तस्मिन् पदनबके प्रथमपदे नित्यमपि अर्हतो ध्यायत, यूयमिति शेषः, कीदृशान् अर्हतः?-अष्टादशदोषैर्विमुक्तान् पुनर्विशुद्ध-निर्मलं यत् ज्ञानं तत्स्वरूपमयानिति, पुनः प्रकटितानि तत्त्वानि यैः ते तान्,पुनर्नताः सुरराजा-इन्द्रा येभ्यस्ते तान् ॥२४॥ भो भव्या ! यूयं तन्मयमनसः सन्तः जिनाजिनादिपञ्चदशभैदेः प्रसिद्धान् सततं-निरन्तरं ध्यायत, तन्मयं-सिद्धमयं मनो येषां ते इति समासः, कीदृशान् सिद्धान्?-घनानि-निबिडानि यानि कर्मबन्धनानि तेभ्यो विमुक्तान्, पुनः सिद्ध-निष्पन्नम् अनन्तचतुष्कम्-अनन्तज्ञानदर्शनसम्यक्त्वाकरणवीर्यरूपं (चतुष्कं) येषां ते तान् ॥२५॥ भो भव्या ! नित्यं सूरिवरान्आचार्यान् ध्यायत, कीदृशान् सूरिवरान्? - ज्ञानाचारादिपञ्चाचारैः पवित्रान्-निर्मलान्, पुनर्विशुद्धा-निर्मला ये सिद्धान्ताजिनागमाः तेषां देशना-उपदेशस्तत्र उद्यता-उद्यमवन्तः तान्, पुनः ? परोपकार एव एक प्रधानं येषां ते तान्, परोपकारकरणै कतत्परानित्यर्थः ॥ २६ ॥
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