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- सिरि भूवलय साहस पूर्ण कार्य
सिरि भूवलय की कहानी बहुत ही पुरानी है। १९४५ में जब मैं बंगलोर में एक निजी कॉलेज को प्रारंभ करने के कार्य में व्यस्त था तब सिरि भूवलय का परिचय मिला। उस समय बंगलोर के साहित्य संस्था में वरिष्ठ साहित्यिक, वीरकेसरी, ताताचार्य शर्मा, देवडु आदि और आज के साहित्यिक अनक्रू राम मूर्ति, अर्चिक वेंकटेश आदि के सुरुचि पूर्ण साहित्यिक गोष्ठियो में इस ग्रंथ का विषय उठता था । इस ग्रंथ में कोई रहस्य छिपा है और उस गुप्त लिपि को अंक लिपि कहा जाता है ऐसा सुना था ।
ऐसे में मैंने श्री यल्लप्पा शास्त्री जी को देखा । उनके सुपुत्र श्री एम. वाय. धर्मपाल मेरे शिष्य थे । इस कारण जान-पहचान बढने लगी । उस समय मैंने इस आँखों देखी ग्रंथ की रीति को समझा । इस ग्रंथ के विषय में अधिकाधिक श्रम उठाकर इसके अंतरंग के शोध में तल्लीन श्री कर्लमंगलम श्रीकंठैय्या और अनंतसुब्बाराय जी से परिचय हुआ। १९५३ में ग्रंथ की छपाई हो कर उसकी प्रति सभी को प्राप्त हुई। अनेकानेक लोगों ने ग्रंथ के प्रति अभिप्राय और लेखों को प्रस्तुत किया फिर भी उसका अंतरंग आज की भाँति ही गोपनीय बना रहा।
अंक लिपि को पढ़ने की रीति की खोज श्री यल्लप्पा शास्त्री जी ने की। यह एक महत्वपूर्ण खोज थी। श्री यल्लप्पा शास्त्री जी के निधन के बाद पुनः यह ग्रंथ अँधेरों में गुम हो गया। बहुकाल के बाद पुस्तक शक्ति प्रकाशन के श्री वाय. के मोहन जी ने इसका परिष्करण कर छपाई का कार्य करने का बीडा उठाया। तब इस ग्रंथ का चमत्कारिक स्वरूप मुझे ज्ञात हुआ। तब मैंने उन्हें डॉ. टी. वी. वेंकटाचल शास्त्री जी से सहयोग लेने का सुझाव दिया डॉ. शास्त्री जी ने चित्र बंध के विषय में महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की है और संशोधन भी किया है । ____डॉ. शास्त्री जी, डॉ. मरूळय्या जी और डॉ. गणेश ने मिलकर ज्ञात विषयों के अनुसार लेखों को प्रकट किया है। इस ग्रंथ के लेखक श्री कुमुदेन्द्र मुनि के विषय में तथा आगे अनेक कुमुदेन्दुओं के विषय में विवरणों को इस प्रथम