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इस कृति के आदिवाक्य एवं अन्तिमवाक्य निम्नोक्त हैं : आदिवाक्य आदीसर आदे नमुं शिवसुखनो दातार ।
सुरनर सहु सेवा करें, सुरतरु सम साधार ||१|| प्रणमुं भगवती भारती, समरूं नवपद सार ।
अरिहंत सिद्ध गणधर नमुं, पाठक मुनि सुविचार ||२|| अन्तिमवाक्य : संवत १७ पंचोतरा वरषें, काति वदि मन हरखे छे ।
फरवरी २०१३
वार रवी तेरसि दिन कहीइं, इम जगमां जस लहीइं छे ।। श्रोता जननें अति सुखकारी, जगकीरति सुविख्यात छे । धन खरचीनें सुणे जिनवांणी, लिखमी तास प्रणांम छे ।।
इस रासकृति का सृजन सर्व सामान्य जन को ध्यान में रखकर किया गया है। इसकी भाषा सरल स्वाभाविक और मनोहारी है। इसमें विविध रागमय दुहा, चौपाई, ढाल एवं गुजराती गीतों का समावेश किया गया है जो कवि के कवित्व कौशल का परिचय कराता है। काव्य का प्राणतत्त्व रस प्रवाह है, इसी लिए कहा गया है वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । कवि ने प्रमुख रूप से वीर रस का आलेखन किया है। साथ ही इसमें हास्य, करुण, भयानक, बीभत्स, श्रृंगार एवं अद्भुत आदि रसों की छटा भी देखने को मिलती है। इस कृति में कवि ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है।
कवि ने कृति के प्रारंभ में प्रथम मंगल करते हुए आदीश्वर भगवान, गुरु भगवंत एवं विद्यादायनी माँ भगवती का गुणगान किया है और अपने आपको एक छोटा सा अदनासा जीव बताते हुए कहता है कि मैं अल्पमति कुछ कडियों का प्रास बैठाने का प्रयास कर रहा हूँ जो मेरे लिए एक छोटी सी नाव द्वारा अथाह सागर को पार करने के प्रयास जैसा है । कवि हृदय के इन उद्गारों से कवि के विशाल व्यक्तित्त्व और गुरु के प्रति समर्पण भाव का परिचय प्राप्त होता
है !
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मध्यकालीन साहित्यरसिक गवेषकों के लिए यह ग्रन्थ शोध सामग्री प्रदान करने में सहायक सिद्ध होगा। इसी आशा के साथ....