Book Title: Shrutsagar Ank 1999 01 008 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ सम्पूर्ण वैभव के बाद भी जगडू के पुत्र नहीं था एक कन्या हुई थी जो विवाह के बाद तुरन्त विधवा हो गई थी. इससे वह बहुत दुःखी था. किन्तु इसका रोना न रोकर वह धार्मिक कार्यों में तल्लीन हो गया था. जिससे उसकी आत्मा को भी शान्ति मिल रही थी. एक बार पारदेश के पीठदेव नामक राजा ने भद्रेश्वर पर आक्रमण कर नगर को तहस-नहस कर दिया. लूट-पाट कर वह अपने देश चला गया. यह देखकर जगडू ने पुनः भद्रेश्वर का किला बनाना प्रारम्भ किया. अहंकारी पीठदेव ने यह समाचार सुना तो यह संदेश जगडू को भिजवाया- 'यदि गधे के सिर पर सींग आया तभी तुम यह किला पुनः बना सकोगे नहीं तो कभी नहीं.' जगड़ ने उत्तर दिया कि गधे के सिर पर सींग उगाने के बाद ही वह किले को बनाएगा. उसने पीठदेव की परवाह किये बिना ही किले का काम चालू रखा तथा किले की दीवार में एक गधा खुदवाया जिसके सिर पर सोने के दो सींग रखवाए. पीठदेव जैसे वैरी से बचकर रहना चाहिए यह समझ कर उसने गुजरात के राज विमलदेव से मुलाकात की और सब बताया. विमलदेव ने अपनी सेना तुरन्त भद्रेश्वर भेजी. सेना आते ही पीठदेव को विवश होकर जगड़ से सन्धि करनी पड़ी. जगडू के पास अपार धन, वैभव व सम्पदा के साथ प्रचुर यश एवं कीर्ति थी फिर भी उसे अभिमान नहीं था. प्रभु पूजा एवं गुरुभक्ति भी उसका बहुत बड़ा गुण था. एक बार एक जैन साधु भगवन्त ने उसको कहा कि तीन वर्ष का अकाल पड़ने वाला है इसलिए तुम अपने धन का अधिकाधिक सदुपयोग करना. जगड़ के लिए इतना कहना ही पर्याप्त था. उसने देश-विदेश से अनाज खरीद कर कोठे भरवा दिए और उनपर लिखवा दिया- गरीबों के लिए. संवत १३१३ के प्रारम्भ होते ही अकाल पड़ा और लोग त्राहि माम कह प्रकार उठे. यह अकाल तीन वर्ष चला और १३१५ में तो चरम सीमा पर पहुँच गया. इस अकाल के बारे में ऐसा कहा जाता है कि चार आने के तेरह चने मिलते थे तथा लोग अपने बच्चों तक को मार डालते थे. महंगाई चरम सीमा पर थी. वैसा अकाल फिर नहीं पड़ा. ऐसे विकट समय में जगड़ ने देश-देश के राजाओं को उधार दिया. कहा जाता है कि ९ लाख ९९ हजार बोरी अनाज उसने राजाओं को उधार दिया. उसने ११२ सदावर्त शालाएँ खोली जिनमें पाँच लाख मनुष्य भोजन करते थे. उसने इस समय इतना दान किया कि लोग उसे कुबेर कहने लगे. वास्तव में जगड़ की उदारता अद्वितीय, धन्य और अनुकरणीय है. उसकी उदारता ने समूचे जैन समाज का गौरव बढ़ाया. उसके कार्यों से लोगों को महसूस हुआ कि जैन शब्द का वास्तविक अर्थ है- जगत् भर की दया पालने वाला. उसने तीन बार बड़े-बड़े संघ निकाल कर पवित्र तीर्थ धाम शत्रुजय की यात्राएँ की. भद्रेश्वर में बड़ा मन्दिर बनवाया तथा अन्य अनेकों मन्दिरों का निर्माण करवाया. अनुश्रुत्यानुसार उसने १०८ मन्दिर बनवाये थे. उसने खीमली में एक मस्जिद भी बनवाई. मस्जिद बनवाने से उसके यहाँ आने वाले देश-विदेश के व्यापारियों की तकलीफ दूर हो गई और सभी के साथ उसके प्रेम भरे सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध बने. जरात के कुबेर जगड़शाह इस प्रकार अनेक लोकोपकारी कार्य कर जब परलोक को प्राप्त हुए तब सारे देश में दुःख छा गया. राजा लोग भी उसके देहान्त के बाद रोये. उसके समान दान-वीर कोई नहीं हुआ. जैन समाज में ऐसी मान्यता है कि धन मिले तो जगडूशाह के समान ही सात्विक भावनायें भी मिले.. पष्ठ ९ का शेष अवशेष भी दर्शनीय है. पञ्चधात से बनी हुई जटायुक्त तथा रेडियम जैसी आँखोंवाले श्री शान्तिनाथ प्रभु तथा श्री अजितनाथ भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमायें भी अवश्यमेव दर्शनीय है. आचार्य बुद्धिसागरसूरि महाराज यहीं बैठकर ध्यान करते थे. यह तीर्थ इतना चमत्कारी है कि यहाँ श्रद्धा-भक्ति से आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की मनोकामना अवश्य पूरी होती है.. For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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