Book Title: Shrutsagar Ank 1999 01 008 Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ इतिहास के झरोखे से अनुपम दानी : जगडुशाह कच्छ के भद्रेसर नामक गांव मे सोलक नामक सेठ और लक्ष्मी नामक सेठानी रहते थे. उनको तीन लड़के थे. पहले का नाम जगड़ दूसरे का नाम राज और तीसरे का नाम पद्म था. ये तीनों भाई बड़े साहसी, बहादुर और चतुर थे. युवा होने पर तीनों का विवाह अच्छे घराने की कन्याओं के साथ कर दिया गया. जगड़ की पत्नी का नाम यशोमति, राज की पत्नी का नाम राजलदे और पद्म की पत्नी का नाम पद्मा था। इन तीनों की औसत अवस्था २० वर्ष के आसपास रही होगी कि उनके पिता सोलक का देहान्त हो गया. इससे इन्हें बहुत दुःख हुआ. फिर भी धैर्य के साथ जगड़ ने घर का सारा कामकाज सम्हाल लिया. जगड़ बहुत ही चतुर था. उसका हृदय विशाल और प्रेम से सराबोर था. दान करने में उसका कोई जोड़ीदार नहीं था. कोई भी दीन-दुःखी अथवा याचक उसके द्वार से निराश नहीं जाता था. जगड़ इस बातको जानता था कि धन आज है कल नहीं रहेगा. इसलिए जहाँ तक हो सके लाभ उठा लेना चाहिए. धीरे-धीरे धन कम होने लगा. जगड़ को चिन्ता होने लगी कि 'क्या कभी ऐसा भी सभय आ सकता है कि मेरे दरवाजे से किसी याचक को खाली हाथ जाना पड़े?' वह बारबार प्रार्थना करता था कि ऐसा समय कभी न आए कि कोई याचक खाली हाथ वापस लौटे. उसकी इस चिन्ता के रहते एक दिन भाग्य ने अपना कमाल किया. नगरद्वार पर उसने बकरियों का एक झण्ड देखा जिसमें एक बकरी के गले में मणि बँधी हई थी. यह मणि बड़ी मुल्यवान थी. चरवाहे को इस बात का पता नहीं था. उसने काँच समझकर बकरी के गले में बाँध रखी थी. जगड़ ने विचार किया कि यदि यह मणि उसे मिल जाय तो वह अपने सारे इच्छित कार्य सरलता से पूरा कर सकेगा. उसने वह बकरी खरीद ली. उसके बाद उसे धन की कोई कमी न रही. उसने देश-विदेश के साथ व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया. उसका व्यापार दिन दुना रात चौगुना बढ़ने लगा. समुद्री व्यापार में भी उसका वर्चस्व हो गया. एक बार जगडू का जयंतसिंह नामक मुनीम इरान के होर्मज नामके बन्दरगाह पर गया. वहाँ उसने समुद्र के किनारे एक बड़ी बखारी किराये पर ली. उसके पास की बखारी खम्भात के एक मुसलमान व्यापारी ने ली. कुछ दिनों के बाद इन दोनों बखारियों के बीच से एक सुन्दर पत्थर निकला. इस पत्थर के लिए मुसलमान और मुनीम के बीच झगड़ा हो गया. दोनों ने अपना-अपना दावा किया. मुनीम ने अपने स्वामी जगडू के लिए तीन लाख दीनार में वह पत्थर ले लिया और जहाज में डाल कर भद्रेश्वर ले आया. जगड़ के पास यह समाचार पहुँचा. जगडू खुश होगया कि उसके मुनीम ने उसकी इज्जत बढ़ाई. उसने मुनीम को बड़ी धूम-धाम से जयन्तसिंह और पत्थर को अपने घर ले आया. जयन्तसिंह ने सारी कथा सुनाई और अन्त में कहा कि 'आपकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ही मैंने इतना रूपया खर्च कर डाला है. अब आपको जो दण्ड देना हो दे सकते हैं.' . ___ जगडू बोला 'तुम पागल तो नहीं हुए हो? तुमने मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि की है. इसलिए तुम्हें दण्ड नहीं पुरस्कार देना है. ऐसा कह कर उसने एक मूल्यवान पगड़ी और मोतियों की माला पुरस्कार में उसे दे दी. बाद में उसने वह पत्थर अपने घर के आंगन में जड़वा दिया. एक दिन एक भिक्षुक आया. उसने जगडू को कहा कि इस पत्थर में अनेक मूल्यवान रत्न हैं इसलिए इसे तोड़कर प्राप्त कर लो. भिक्षुक की बात मानकर जगडू ने उस पत्थर को तोड़ा तो सचमुच ही उसमें से अनेक रत्न निकलें. परिणामतः उसकी धन के कम हो जाने की चिन्ता तत्क्षण गायब हो गई और वह पहले से ज्यादा समृद्ध हो गया. For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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