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June-2017
SHRUTSAGAR
कारण विण नाहिण अंगोल, वस्त्र धोवा नावु रंगरोल; नोमैव्रतै कहीइं ए सार, सामाइक पडिकमणों उदार
॥१५॥
ढाळ
॥१॥
॥३॥
एक वरसै रे वीस करूं हुं सार रे, दशमों व्रतरे पालतां होइ भवपार रे; सत्तावीस रे द्रव्य उगणच्यालीस ते जाणि रे. त्रीस कोस ज रे वलि जल शत जाणि रे विगय पांच ज रे जोडा पांच पग वाणही, अधर सेर ज सघलो बोल कहुं सही; कुसुमं सेर एक रे वेस पहिलं दस दिन व्रतें, साडात्रीस ज रे राखुं नवा निजघरि व्रतें
॥२॥ वाहण जाति ज रे पांच राखं ते अतिभली, शय्यादिक रे पाथरणा सहित वली; आठ राखुं रे अवर परिहरि सों मनरुंली, पांच सेर ज कुसुमादिक रूडी कली विलेपन रे अंग धरू सेर एक रे, मासै करीइ रे नाहण च्यारि विवेक रे; अंघोल वली रे मासे कीजै वीस रे. आठमि चोउदाशि रे टालीजें निसदीस रे जीव जीवैरे दिवसै हु ब्रह्म धरुं, परभाति रे चउद नीम संख्या करुं; एकादशमै रे पोसह पंच वरसै करुं, बारमे व्रत रे संवीभाग दोइ करूं अणमिलतै रे होइ सामि ते हु सार रे, दान देतां रे लहीइ भव नो पार रे; समकित मूल रे बारव्रतइ मली धरे, पंचलोकनी रे साखि भली मइ कीधरे ॥६॥
ढाळ पनर करमादान जे कह्या, तेहवि संक्षेपइ जी; अंगालु कर्म परिहरि पहिलोरूं, गुरुशाक्षि शुभ हेतइ जी॥१॥
___ पापकर्म भव परिहरो। आंकणी। लुंगडुंग ज पांचसइ, रंगावों घरकामइ जी; व्यापार हेतइ नवि करूं, धूपेल दश सेर मानइ जी
॥२॥ पापकर्म०
॥४॥
॥५॥
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